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रत्नकरगड श्रावकाचार निर्वाणका कारण हो भावरूप निश्चय धर्मको छोडकर केवल व्यवहार धर्मका ही सेवन अथवा व्यवहारको छोडकर केवल निश्चयका ही सेचन करनेवाला कम निबर्हण या निर्वाण रूप फलको प्राप्त नहीं कर सकता । यही कारण है कि जिस तरह भागममें व्यवहारको हेय बताया है उसी प्रकार केवल निश्चयको भी मिथ्या ही कहा है 'समीचीन' और 'धर्म नियहण' विशेषणों का आशय स्पष्ट करते हुए ऊपर जो शुभ-पुण्यरूप पा पुण्य अन्धके कारण भून धर्मकी गाँणता बताई है, उसका अभिप्राय भी यही है कि अन्तरंग निश्चय रूप धर्मके सिद्ध हो जाने पर ही वास्तव में व्यवहार हेय है क्योंकि कायं सिद्ध होजाने पर फिर कारणकी आवश्यकता नहीं रहा करती परन्तु जब तक निस्थय थर्मशी योग्यता का शक्ति प्राप्त नहीं होती और वह प्राप्त नहीं होता यहां तक तो व्यवहार धर्म ही शरण है तब तक वह हेय नहीं है। क्योंकि उसके प्रारम्भ में श्रालम्बन लिये बिना निश्चय धर्म भी सिद्ध नहीं हो सकता । हां, जी व्यवहार धर्मका निश्चय की सिद्धि के लिये पालन नहीं करता उसका वह व्यबहार धर्म कदाचित् निर्माणका कारण न होकर संसारका ही कारण हो सकता है। अतएव जो मुमुक्ष है उनकी चाहिये कि निश्चय और व्यवहार दोनोंका ही स्वरूप समझे और दोनों ही शुद्ध शुद्ध सङ्कन असत आदि भेदों को भले प्रकार समझकर अपनी शक्ति एवं योग्यता के अनुसार सापेक्षतया दोनों ही पालन एवं२ धारण करे।
ऊपर धर्मके सराग और बीदराग इस तरहसे भी दो भेद बताये हैं। इन दोनोंका स्वरूप शब्दों परसे ही समझमें आ सकता है। जहां तक धर्मका रागके साथ सम्बन्ध पाया जाता है यहां तक सराग धर्म कहा जाता है, और जहां रागके साथ सम्बन्ध नहीं रहता पक्ष पर पीतराग धर्म कहा जाता है। गुणस्थानोंकी अपेक्षा चौथे गुणस्थानसे खुश ठक सराग और उसके ऊपर वीतराग धर्म हुआ करता है।
भागममें कोंक बन्धके कारण मोह और योग मान३ हैं। इनमें भी गुरुय कारण मोह हैं। मोहके तीन भेद है-दर्शनमोह क.पाय वेदनीय और नो कपाय वेदनीय । कषाय वेदनीयका एक भेद अनन्तानुसन्धी दर्शनमोहके भेद रूपमें भी बताया है और चारित्र मोहके भेदमें भी गिनाया है । सम्यग्दर्शन रूप धर्म अपने प्रतिपक्षी कर्मों के पशम कय दयोपशम होने पर जब
आविर्भूत होता है वहीं से अन्तरंग वास्तविक धर्म प्रच.ट होता है । परन्तु जहां तक उसका शेष मोहके उदयकं साथ साहचर्य बना रहता है वहां तक वह सराग माना जाता है यही कारण है। मागेकी व्याख्यास विदित होगा परन्तु यह बात जाकर चानमें रखनी चाहिये कि कारणके बिना भी कार्यकी सिद्धि न तो होती ही है और नहीं हो सकती है । अन्यथा उसको कारण भी किस तरह कहा जा सकेगा।
१-"निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा यातुतोऽथंकृत् ।" प्राप्तमीमांसा । व्यवहारमभूतार्थ प्रायो भूतार्थविमुखजनमोहात् । केपलमुपयु'जानों दम्जनबद्भश्यति स्वार्थात् ॥ अन ०१-६ । व्यवहार पाची नां निश्चयं यश्चिकौषीत ! बीजादिना बिना मूढः स सस्यानि सिसृक्षनि ॥१०॥ भूतार्थ रज्जुबत्स्वैरं वित्त वंशवन्मुहुः । श्रेयाधीरैरभूतार्थो हेयस्तषिद्धतीश्वरैः ।।१०।। ३-इसके लिये देखी मनगार धामृत - no- 0.
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