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चंद्रिका टीका दूसरा श्लोक प्रवृत्तियों का परित्याग होता है उसको बहिरंग एवं द्रव्य रूप धर्म कहते हैं । इन्द्रियों तथा मनके विषयसे निवृत्ति, हिंसा आदि पापोंका त्याग, एवं छतादि महाव्यसनोंसे उपरति और अन्य सावध प्रवृत्तियों का परिहार आदि बहिरंग धर्म है । इल बहिरंग धर्मकी अन्तरंग धर्म के साथ नियत अथवा समन्यामि नहीं है। ऐसा नियम नहीं है कि जहाँ २ यह बहिरंग धर्म हो वहां २ अन्तरंग धर्मभी अलभ्य ही रहे। पाकिमा लिंग धर्म मोहनीय कर्मके उपशम क्षय क्षयोपरम के बिना केवल मन्द मन्दतर मन्दतम उदयकी अवस्थामें भी हुआ करता है। फिर भी यह सत्य है कि इस तरहका केवल बहिरंग थम भी अनेक अभ्युदयों के कारण भृत घुण्य बन्धका कारण होने के सिवाय अन्तरंग धमकी सिद्धि में भी एक कारण अवश्य है। इसके विपरीत अन्तरंग घमेकी बहिरंग धमेके साथ यह व्याप्ति अवश्य है कि जहां २ जिस २ प्रमाणमें अन्तरग धर्म पाया जाता है वहां २ उसके प्रतिपक्ष बाह्य असंयत प्रवृत्तिका अभावभी अलग ही रहा करता है। ऐसा नहीं होता कि जहां जिस प्रमाण में अन्तरंग धर्म प्रकट होगया है या विद्यमान है वहां उसके विरुद्ध असंयत प्रवृत्तिभी होती रहे । उदाहरणार्थ अनन्तानुवन्धी ४ कपाय तथा दर्शन मोहनीय कर्मक उपशमादिसे सम्यग्दर्शन रूप यम प्रकट होता है ऐसी अवस्थामें यह कभीभी संभव नहीं हो सकता कि जब तक वह सम्यग्दर्शन विद्यमान है तब तक मिध्यात्व या अनन्तानुबन्धी कपायके उदयके निमित्त से होने वाली बाह्य असंयत प्रवृत्तियां भी होती रहें । अन्यथा करणानुयोग में बन्ध व्युच्छित्ति श्रादिके बताये गये नियम ही असंगत हो जायगे और संमार मोक्षकी वास्तविक म्यवस्था ही नहीं बन सकेगी । न करणानुयोग सिद्धान्त शास्त्रके साथ चरणानुयोगके उपदेशों की संगति ही बैठ सकेगी । अतएव यह सिद्ध है और स्पष्ट है कि अन्तरंग धर्म के अनुकूल वाघ प्रवृचि अश्श्य होती है । इसलिये चतुर्थ मुणस्थानीको "असंयत" कहकर जो उसकी प्रकृति भाहार विहारादिमें अनर्गल रताना चाहते हैं वे गलती पर है और उनका इस तरहका कथन उत्सूत्र समझना चाहिये । इसी तरह जो पाह्य धर्मको अन्तरंग धर्मका कारण नहीं मानते घे भी तृत्वसे विपरीत हैं । इससे भी कनर्मलताकी पुष्टि और वृद्धि होती है तथा सन्मार्गके वास्तविक कार्य कारण भावका भंग होता है । इसलिये मातरंग और बहिरंग धर्मको मैत्री तथा अनुकूल कार्य कारणताको समझ कर चलना ही सर्वथा जरित है। यहां पर या पात अवश्य ही ध्यानमें रखनी चाहिये कि द्रव्यरूप श्रीर भावरूप अथवा अन्तरंग और पहिरंगरूप धर्म वास्तष में धर्म शब्दसे भी.तभी कहे या माने जा सकते हैं जबकि उनमें परस्पर मित्रता हो । दोनों में विरोध रहते हुए किसीको भी धर्म शम्दसे नहीं कहा जा सकता। द्रव्यरूप धर्भको छोड़कर भावरूप धर्म नहीं रह सकता और न भावरूप धर्मका विरोधी रहने पर द्रव्यरूप धर्म ही समीचीन धर्म माना जा सकता है । क्योंकि वास्तविक धर्म वही है जिससे कर्मों का निवईण हो जो वस्तुतः
१-इन्द्रियोंके विषय तथा हिंसा झूठ चोरी आदि पापों के त्यागका नाम संयम और उनके त्याग न करनेको अर्सयम कहते हैं।
अन्तरंग धर्मको सिद्धि में वाम धर्म कारण है, न कि.वरम | भरण और रणमे क्या भन्सर है, यह