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________________ चौद्रिका टीका दूसरा लोक कि इस सराग धर्ममें अंशांशि भाव माना गया है । धर्म और राग दोनोंकी मिश्रित अवस्थाके कारण उसका दोनों दृष्टियोंसे विचार किया गया है। इसमें जो सम्यग्दर्शनादिक प्रात्माका शुद्ध अंशरप धर्म है वह तो संघर निर्जरा एवं मोक्ष का ही कारण है, ६.ह किसीभी तरहके कर्म बन्धका कारण नहीं है । किन्तु उसके साथ जो संग भाव लगा हुआ है वह बन्धका कारण है। इससे यह बात समझमें भाजायगी कि धर्मको जो अभ्युदयका कारण कहा जाता है यह मी सर्वथा अताविक नहीं है । धर्मके सहचारी रागके कारण होने वाले पन्धका-सांसारिक अभ्युदयों के कारण भूत काँके बन्धका कारण उपचारसे धर्मको भी कह दिया जाता है। यद्यपि यह ठीक है किधर्मके सहचारी तथा व्यभिचरित रागर्भ बहुत बड़ा अन्तर एवं विशेषता है। यही कारख है कि विशिष्ट एवं अनेक सतिशय अभ्युदय ऐसे हैं जिनके कि कारण भूत पुण्य कर्म विशेषों का बन्ध धर्मके सहचारी रागके लिमिलसे ही हुआ करता है । जो कि धर्मसे व्यभिचरित रागके द्वारा न तो होता ही है और न संभव ही है। धर्मको उपचारसे श्रभ्युदयका कारण कहने में यही निमिच४ है । आगे चलकर प्रकृत ग्रन्थम मा सम्पग्दर्शनादिके जो अनेक भाग्युदायिक फल बताये हैं वे भी इसी कारण वास्तांवफ धर्मके सहचारी भिन्न २ शुभ रागरूप परिणामोंके ही वस्तुतः फल समझने चाहिये । फलतः स्पष्ट है कि निश्चय धमके साहचर्यकं पिना जो अभ्युदय प्राप्त हो नहीं सकता उस मा सलय धनको कारण कहना भी अयुक्त तथा मिथ्या नहीं है। इस तरहके सराग धर्म के आधार पर ही तीर्थ प्रवर्तन संभव हो सकता है। तात्पर्य प्राप्तपरमेष्ठी सर्वज्ञ वीतराग श्रीवधान भगवान्ने अर्थतः और उसके ज्ञाता एवं वक्ता-पवतक श्री गौतमादिगणधर देवन सनीचीन धर्म क भिन्न २ अपेक्षा असि नाना प्रकार बताये हैं। परन्तु उन सभी प्रकारोंको सामान्याया चार भागों में विभक्त किया जा सकता है। १. वस्तुस्वभाव,६ २-उत्ता क्षमादि दशलवण, ३-रत्नत्रय, ४-दया। बस्तु स्वभावका विचार ट्रम्यानुयोगमें विस्तार पूर्वक और भिन्न २ दृष्टियास कियागया है। जिज्ञासु मुमुक्ष ओंको यह सबसे प्रथम अवश्य समझलेना चाहिये। क्योंकि उसका ज्ञान प्राप्तहुए बिना न तो अन्य विषयों का ठीक १--"सप्त चष्टिमोहम्" पंचाध्यायी और नस्वार्थ सूत्र तथा धवला। २-यनांशेन सुधिरतमाशेनास्य बंधनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंशन भवति। येनांशेन तु शानं तेनाशनास्थ मंधन नास्ति । यनांशन तु रागस्तनाशनास्य बंधनं भवति ॥ येनांशेन परित्रं तेनाशनास्प बंधनं नास्ति । यनांशेन तु रागस्तनाशनास्थ बवा भात । पुरुषार्थ तथा येनोशेन विशुद्धिा स्थाजन्तीस्तन न धनम् । यमांशेन तुराग स्यात्तेन स्यादेव बन्धकम् ॥ ११०१ अनगार। किंच-"रलत्रयमिह देतनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । प्रास्रवात पुण्यं शुभोपयोगस्य सोयमपराधः ०१ अन० टो-:. ३-अनुदिश श्रादिमें उत्पत्ति, तथा सौधर्मेन्द्रादि पदका लाभ, या मनुष्य भवमें चक्रवर्ती तीर्थकर जैसे पद ॥४-क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि-"प्रयोजने निमस चोपचारः प्रवर्तते ।" ५-इसके लिये देखो रत्नकरस श्रावकाचार कारिका न. ३६ से ४१ तक, तथा ३३, २४ ६-प्रवचनसार--वसुझायो धम्मो आदि ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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