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________________ ArAmarAAAAA A rman" লেগান্ধা ठीक परिज्ञान ही प्राप्त हो सकता है और न अभीष्ट विषयमें सफलता ही प्राप्त हो सकती है। कारण यह है कि सभी विषय मूलभूत वस्तुस्वभावसे ही सम्बन्धित हैं और उसीपर आधारित है। इसके सिवाय बात यह भी है कि जिस उपाय से प्रारमा निर्वाण को प्राप्त होता है वह भी वस्तु स्वभाव से भिन्न नहीं तत्पर ही है। सस्तु समसगुण यम का अखंडपिंड है । और वह उसका अनाद्यनन्त स्वभाय है। उसमें जो अनेक विप्रतिपत्तियां३ उपस्थित हैं उनका निराकरण स्यावाद पद्धतिसे जैनागम के अनुसार वस्तु स्वभावके समझलेने पर सहजही हो जाता है। क्योंकि सर्वज्ञ वीतराग भगवान्के द्वारा प्रतिपादित होनेके कारण तथा वस्तुस्वभाव को ठीक समझाने एवं समस्त विरोधोंका परिहार परने में समर्थ यह "स्याद्वाद" सिद्धान्त एक एसी नीति--युक्ति-रीति या पद्धति है जोकि समस्त प्रश्नोंका समाधान करने एवं सभी विरोधों-आपचियोंको दूर कर दस्तुका ययावत् स्वरूप प्रकट करने में समर्थ है । इस नीतिका प्रतिपादन जैनागमके सिवाय अन्यत्र कहीं भी नहीं पाया जाता इसके द्वारा यह यात भी स्पष्ट हो जाती है-अनुमान द्वारा जानी जा सकती है कि जिसने इस उपायको बताया है वही उपेय--वस्तुस्वभावका भी यधार्थ एवं पूर्णतया ज्ञाना तथा वक्ता माना जा सकता है निष्पक्ष सदाग्रही मुमुक्षुओं को चाहिये कि उसी के पचनाके अाधार पर चलने में अपना हित समझे। ऊपर जैसा कि कहागया है कि वस्तु अनन्तगुणधर्माका अखएडपिंड है यही कारण है कि उसके स्वरूपका परिज्ञान करानेके लिये प्राचार्यो उसका जो भिन्नभिन्न दृष्टियोंसे प्रतिपादन किया है यह परस्पर में विरोध नहीं रखता। प्राचार्योने द्रव्यांके स्वरूप का विचार अनेक प्रकारसे किया है। या तो सर्वसामान्य अस्तित्वकी दृष्टि से या उसके विशेर-गुणपर्यायों-गुण-धर्मो-चित् अचित, मूर्व अमूर्त, काय अकाय, सक्रिय निष्क्रिय, एवं सत् असत्, एक अनेक, नित्य अनित्य, तत् अतद् आदि तथा साधर्म्य वैवर्मा, तिर्यक सामान्य, अर्घतासामान्य, स्वभाव विभाव, शुद्ध अशुद्ध प्रभृति वियचिव अविवक्षित विशेषणों को मुख्य तथा गौण रखकर नाना तरहसे विचार तथा वर्णन किया है । किन्तु यह सारा ही विषय दो भागोंमें विभक्त है-हेय और उपादेय । उक्त सब विषयका परिझान समीचीन६ भुतका सम्यकतया अभ्यास करने पर हो सकता है । इसके लिये विधिपूर्वक चारोंदी अनुयोगों २–निर्वाणका साक्षास साधन रत्नत्रय--सम्यादानादि भामरूप ही है उस मिनही त्यत्तयं ण बट्टा अप्पाएं मुबहु अएणदयियम्मि तम्हा तत्तियमइओ होरि गोक्खरम पारणं आदा।। द्रव्य समह ४०।। -विरोध, विरुद्धमान्यताम् । ४-५ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय-अत्यन्तनिशितधारं दुरासद जिनवरस्य मयचक्र गण्डयति घायमानं मूर्धानं झटिति दुर्दिदधानाम् । ६-दिगम्बर जैनागम । -श्रद्धापूर्वक एवं गुरुमुखसे आम्नायपूर्वक !-मन्थार्थोभयं पूर्ण काले पनयन सोपधान म बहुमानेन समन्धितमनिहवं झानमाराध्यम् । तथा मन्थार्थतद्द्यैःपूर्णम् आदि मन ३.१४ रियादशम्नाय निभ्याय युक्त्यान्तः प्रणिधाय च । भुतं व्यवस्थेत्मविश्वमनेकान्तात्मक सुधीः ॥ अन ३---
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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