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________________ ३१६ रत्नकरगड श्रावकाचार संसार और मोaat साधक अवस्थाओं के अन्तरङ्ग बाहरंग कारणोन अपूर्व एवं महान् परिवर्तन भी अवश्य होजाता है, जो कि होना चाहिये | संसारके कारणभूत कमोंमें और मां के साधनभूत आत्मा शुद्ध भावोंमें वह परिवर्तन कितने प्रमाण में और किस रूपमें हो जाता है यही यात इस कारिका के द्वारा बताई गई हैं। मिथ्यात्व के साहचर्य में जिन जिन पापक्रमोंका बन्ध अतिशयपूर्ण हुआ करता है, अथवा उसके निमित्तमे ही पापरूप कर्मोका बन्ध हुआ करता है, वे सम्यग्दर्शन के होनेपर की प्राप्त नहीं हुआ करते । फलतः संसार और उसके कारणोंका दास रूप फल स्पष्ट होता हैं। इसके लिये वे कर्म कौन-कौनसे हैं- कितने हैं, तथा उनका क्या-क्या वह कार्य हैं जो कि दुःख रूप संसारके मुख्य स्थान माने गये हैं और जो कि आत्माके गुणका स्थान बढते ही छूट जाते हैं, उनका इस कारिका के द्वारा उल्लेख किया गया है। यद्यपि इसके साथ ही मोच की साधक अवस्थाओंके कारणभूत पुण्य कर्मोंमें सम्यक्त्वके सानिध्य के ही कारण जो विशिष्ट अतिशय आता है उसका उल्लेख करने से सम्यग्दृष्टि जीवकी मोक्षमार्गमें होनेवाली अग्रसरता प्रतिरूप फलका भी स्पष्टीकरण होता है अतएव उसका भी वर्शन करनेकी आवश्यकता है। किन्तु इसका वर्णन आगेकी कारिकाश्रमें क्रमसे किया जायगा । यद्यपि प्रतिपक्षी कर्मोंकी व्यवस्थाओं के परिवर्तनको ज्ञान लेनेसे बढती हुई श्रात्म गुणोंकी विशुद्धिका परिज्ञान भी स्वयं ही हो जाता है या हो सकता है। फिर भी अन्तरंग - बहिरंग उन अनेक आभ्युदयिक अवस्थाका सम्यग्दर्शनके फलरूपमें बताना भी आवश्यक हैं जो कि सातिशय पुण्यकम सम्बन्धित हैं और उधम सुखकी सिद्धि तथा मोक्षमार्गको प्रवृत्ति और प्रतिपक्षी कर्मोकी निवृत्तिमें बलवत्तर बाह्य असाधारण साधन हैं। इनका उल्लेख आगेकी कारिकाओंमें किया जायगा । परन्तु इसके पूर्व संसारनिवतिरूप फका प्रथम उल्लेख करना इस कारिकाका मुख्य प्रयोजन है । आत्मा की सिद्धावस्था के उपादान एवं मूलभूत प्रतीक सम्यग्दर्शनके प्रकट होनेपर भी यदि संसारकी उपादानकारणता उसमें बनी रहती है और भत्र भ्रमण के कारणभूत कर्मोंका बंध भी ज्योंका त्यों ही होता रहता है तो दुःखरूप संसारसे सर्वथा विरुद्ध मोक्ष अवस्थाका सभ्यदर्शनको असाधारण कारण मानने या कहनेका तथा अपूर्व उत्तम अनन्त निबंध सुखका उसको हेतु चतानेका कोई अर्थ ही नहीं रहता । और न उसको इस तरहका धर्म हो वस्तुतः स्वीकार किया जा सकता है, जो कि संसारका विरोधी होनेके सिवाय मोक्षका ही साधक हो । किन्तु इस कारिकाके द्वारा मालुम हो जाता है कि किस तरहसे सम्यग्दर्शनक होते ही संसारका ममूल विनाश और मोक्ष- अवस्थाका प्रारम्भ होजाता है । शब्दका सामान्य विशेष अर्थ - सम्यग्दर्शनशुद्धः - हम शब्दका सर्व तीन तरहसे किया जा सकता अथवा हो सकता है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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