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का टीका श्रीमानक पहला "मम्यग्दर्शनं शुद्ध निर्मलं येषां ते " । अर्थात् शुद्ध-निर्गल है सम्यग्दर्शन जिनका । दूसरा "सम्यग्दर्शनन शुद्राः । अर्थात् जो सम्पग्दर्शनसे शुद्ध हैं । इन दोनों अर्थों से पहलेमें सम्प. ग्दर्शनकी शुद्धता-भिस्ती कारवा अथवा२५ मलदोषोंने रहितताका अर्थ व्यक्त होता है । और दूसरे अर्धर सम्पग्दर्शनसे विशिष्ट आत्माको विशुद्धि-द्रव्यकर्म, मावक, नोकर्म विशेपोंके सम्बन्धसे साहित्य तया अात्माके द्रव्यचत्रकालमात्र अंशतः भपूर्व स्वास्थ्य स्वाधीनना प्रकाश
आनन्द और प्रमिपक्षीपर लोकोत्तर विनय लामो जना मुक्ति सुखके अनुभवकी पर-सम्बन्ध रहित महत्ता सूचित होती है । इस तरह दोनों अर्थोस एकमे-पहलेमें धर्मकी और इसमें धर्मीकी विशुद्धि बनाई गई है।
संस्कुस टीकाकार श्रीप्रभाचन्द्रने इस शब्दका अर्थ बताते हुए जा छ लिखा है उससे मालुम होता है कि उनको शुद्ध शब्द से अबदायुष्कता अर्थ अभिनत ई, जो कि सर्वधा उचित संगत और प्रकृत कथनके अनुकूल है। किन्तु उन्होंने जिस तरहका बहिसमासका विग्रह किया है, उससे वह अर्थ स्पष्ट नहीं होता। अतएव हमारी समझमे इसी अर्थको बताने के लिये यदि यह विग्रह किया आय कि "सम्यग्दर्शन य ते सम्यग्दर्शनाः सम्यग्दृष्टया जीवाः तंए राहा:-असद्धायुष्का इति" अर्थात् सम्यग्दर्शनशुद्धाः इस शब्दसे यहांपर मुख्यनया जी सम्पग्दृष्टि होकर अद्धाधुष्क है--- जिनके परभव-सम्बन्धी प्रायुतमका अभीतक बन्ध नहीं हुआ है, इस तरहका तीसरा अर्थ ग्रहण करना चाहिये। ___ यद्यपि जो बद्धायुष्क हैं--जिन जीवोंने मिथ्यात्व अवस्थामें परमत-सम्बन्धी आयुकर्मका बन्ध कर लिया है वे जीव भी भायुकर्मका बंध होने के बाद सम्यग्दर्शमको प्राप्त होजाते हैं, ऐसे जीव बद्ध आयुकर्मके अनुसार सम्यग्दृष्टि होकर भी उस गतिकी-- नरक नियंच गतिको भी प्राप्त किया करते हैं। क्योंकि आयुकर्म बन्धनेके बाद उदयमें आये बिना कूटता नहीं है। किन्तु इस अवस्थामें भी उस जीवका वह सम्यग्दर्शन महान् उपकार किया करता है क्योंकि जिसके नरकावुका बध होकर सम्यक्त्व हुभा है। वह जीष सभ्यवत्त सहित मरण करनेपर प्रथम नरश्ते नीषेके नरकोंमें जन्म धारण नहीं किया करता४ । इसी प्रकार तिर्यगायुका बंध होनेके बाद जिस जीवने सम्यक्त्व ग्रहण किया है वह सम्यक्त्वसहित मृत्यूके अनन्तर भोगभूमिमें पुरुष नियंत्र हुमा करता५ है । यदि कोई तिर्यच अथवा मनुष्य परमत्रकी मनुष्यायुका बंध करके सम्बाद
१-प्रमाचन्द्रटीको । २-निरुक्ति (सि० शा० पं० गौरीलाल जी)।- सम्यग्दर्शनलाभार कुस्कान विहाय अन्येन मात्रजन्ति-न प्राप्नुवन्ति ।
४-यत्सकदकमेव यथोक्तगुपतया मजातमशेषकक्षमपधिषणतया नरकादिषु गभियु, पुष्यदायुभामपि मुष्याणां षट्सु तलपातालेषु भवान सभूतिहेतुः । यति० प्रा०६। तथा "प्रथम नरकबिन पडणू गोसिप, आदि छाडाला।
५-प्रारम्भिककालात्पूर्व सिर्थ मनायुकोऽपि सटभोगभूमितिमतपेयेवोत्यवत्त सि।