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________________ - - -h r (लकरण्श्रावकाचार औपशमिक सम्यग्दर्शन हुआ करता है । इसके बाद शायोपशमिक एवं क्षायिक हुआ करता है। इसकेलिये जिन २ मावश्यक एवं असाधारण कारणोंकी आवश्यकता है; उनकारणों के द्वारा जो कार्यरूप सम्यग्दर्शन की निष्पत्ति होती है तथा इतः पर जो फल होता है इन तीनों में से मध्यवर्ण सम्यग्दर्शन अवश्य ही अपने कारण और कार्य का बोध करादेता है । क्यों कि कोई भी कार्य जिसतरह अपने कारणका अनुमान कराता है उसीतरह समर्थ कारण भी अपने कार्य का अनुमापक हुमा करता है। क्योंकि जिसतरह सम्यग्दर्शन अपने कारणों से जन्य है उसी प्रकार अपने फलका जनक भी है । अतः इन तीनोंकी परस्परमें व्याप्ति भी अव्यभिचारित है। और इसी लिये यदि कोई कारण को, कोई कार्य को और कोई फल को यथवा कोइ उसके कमाको भी सम्यग्दर्शन नाम से कहता है तो वह कथन मिथ्या नहीं है क्योंकि सम्यग्दर्शन से सम्बन्धित भिम २ विषयों को भी वे सूचित अवश्य करते हैं। कहांपर वह शब्द किस विषयको सूचित करता है यह बात उसके साधनभेद से जानी जा सकती है। यही कारण है कि आचार्यों ने दर्शन ज्ञान चारित्र शब्दों की और उनके इतर व्यावर्तक-मिथ्यादर्शनादिकसे उनकी भिन्नता सूचित करनेवाले विशेषण रूप सम्यक शब्द की कत साधन कम साधन करण साधन और भावसाधन पादिरूप से भिन्न प्रकार की निरुक्ति की है । यद्यपि ये भिन्न २ साधनसिद्ध सम्यग्दर्शनादि शब्द अपने २ भिन्न २ अंशको ही मुख्यतया भूचित करते है फिर भी में विभिन्न अंश या विषय परस्पर विरुद्ध नहीं हैं। क्योंकि उपयुक्त चारों ही साधनों से सिद्ध सम्यग्दर्शन आदिक एक ही आत्मामें और एक ही समय में पाये जाते हैं । किन्तु उनका युगपन् वर्णन अशक्य होने से एक को मुख्य पनाकर और शेष तीन को उनके अन्नभून कर वर्णन किया गया है और किया जाता है। ___यही कारण है कि प्रायः प्रथमानुयोगमें भावसाधन, करणानुयोग में करण साधन, चरणानुयोग में कर्मसाधन सथा द्रव्यानुयोग में कर्तृ साधन सम्यग्दर्शन आदि की शिवक्षा मुख्य रहा करती है । इस तरह यद्यपि सम्यदर्शनादि शब्दों का साधन भेदके अनुसार अर्थ भेद होता है फिर भी वाचक शब्द के रूपमें कोई अन्तर नहीं है। अत एव यद्यपि प्रकृत में प्रयुक्त उन शब्दों का प्रसारण के अनुसार सीमित अर्थ करना युक्तियुक्त होमा. परन्तु अन्यत्र विवादित अथ से प्रकृत अर्थ में विरोध समझना युक्तियुक्त एवं उचित न होगा। मतलब यही है कि अन्य प्रथमानुयोगादि मागम ग्रन्थों में सम्यग्दर्शनादि के जो भिन्न २ लक्षण किये हैं उन सबका विषयभेद तो है परन्तु उन में परस्पर कोई निरोध नहीं है क्योंकि सभी ग्रन्थकर्ताओंन जो कि सभी सर्वज्ञ के भागम की प्रामाय एवं अनेकान्त सच के मर्मज्ञ हदसम्यग्दृष्टि तो थे ही प्रायः महाव्रती ही है, एक विषयको मुख्य बनाकर और शेष विषयों से विरोध न पड़े इस बावको भी दृष्टि में रख कर ही वर्णन किया है यही वात प्रकृत अन्ध में भी पाई जाती है और समझनी चाहिये। र-दरवा परोक्षामुख अ०३ सूत्र नं. ५४, ६६, ७३ !
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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