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________________ पत्रिका टीका अठारहवा १५७ प्रराम संवेग अनुकम्पा और आस्तिक्य ये सम्यग्दर्शन के लक्षण-चिन्ह माने गये हैं। ध्यान रहे ये सराग सम्यग्दर्शनके ही लक्षण हैं न कि वीतराग सम्यग्दर्शनके । इसका अर्थ यह नही है कि वीतराग व्यक्तियोंके प्रशमादिक भाग पाये ही नहीं जाते। किंतु उनके हजुर बाध चेष्टा नही पाई जाती केवल आत्म विशुद्धि मात्र ही उनका फल है । सराग और वीतराग विशेषण स्वामिभेदके कारण हैं। सराग व्यक्तियोंके सम्यग्दर्शनकी सागर और वीतराग व्यक्तियोंके सम्यग्दर्शनको वीतराग कहते हैं। यों तो सामान्यतया अन्तः परिणामी दृष्टिसे सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान तक सभी जीव सराग हैं फिर भी ब्राह्म चेष्टाओं की अपेक्षा छ गुणस्थान तक व्यक्ति सच सराग और उससे ऊपरके सभी वीतराग माने गये हूँ ! फलतः यह बात समझ में आ जायगी के चौथे पांचवे और छठे गुणस्थानवालोंके सम्यग्दर्शनका उनकी असाधारण चेष्टा आदिसे परिलक्षित लक्षणस्भ प्रशमादिको देखकर अनुमान हो सकता है और उससे यह जाना जा सकता है कि इसके सम्यग्दर्शन है। यद्यपि सम्यग्दर्शन अमूर्त आत्माका अमूर्त ही गुण हैं । इन्द्रियोंद्वारा उसका ग्रहण नहीं हो सकता फिर भी संसारावस्था में कर्मबद्ध होनेके कारण आत्माको कथंचित मूर्त भी माना है। ऐसा यदि न हो तो संसारके सभी व्यवहार, अधिक क्या मोक्षमार्गका उपदेश और उसका पालन भी व्यर्थ ही सिद्ध हो जायगा । श्रतएव कथंचित मूर्त आत्माके गुणका उसके सहचारी या अविना-भावी गुणधर्म या कार्यकी देखकर अनुमान हो सकता है और जाना जा सकता है कि जब इस तरहकी चेष्टा पाई जाती है तो उसका अविनाभावी सम्यग्दर्शन भी यहां है । उदाहरणार्थ- पुरुपकी पौरुष शक्ति हैं-देखनेमें नहीं आती फिर भी अनारमय, अपत्यीत्पादन aufenant अवलम्बन और कृतनिर्वहण कार्यको समाप्त करके रहना इन चार कार्यों द्वारा वह भी जानी जा सकती हैं। उसी प्रकार अदृश्य भी सम्यग्दर्शन प्रशम संवेग अनुकम्पा और श्रास्तिक्यके द्वारा जाना जा सकता है । प्रशम आदिका अर्थ बताया जा चुका है कि रागादिके अनुद्र कको प्रशम, संसार और उस के कारणोंसे भयभीत रहनेको संवेग, दयापरिणामको अनुकम्पा, और तच यहां है इसी प्रकारसे है न अन्य हैं न अन्य प्रकार से हैं इस तरहकी छह प्रतीतिको वास्तिक्य कहते हैं। ऊपर यह बात भी बताई जा चुकी है कि सम्यग्दर्शनके प्रतिपक्षी कर्म मूलमें चार अनन्तानुबन्धी कपाय और एक मिथ्यात्व है । जिनमें मिध्यात्व सर्वोपरि है । आत्माके सभी गुण इससे प्रभावित रहा करते १- तत् द्विविधं सरागवीतरागविषयभेदात । प्रशमं संोगानुकम्पा क्याथभिव्य तलक्षणं प्रथमम् । मात्मविशुद्धिमाश्रमितरत् । सः सि० १-२ । २--ज्ञे सराने सरागं स्याच्छ मादिव्यक्तिलक्षणम् । विरागे दर्शनं त्यात्मशुद्धिमात्रं विरागम् ||अम्गार २०५१ | ३- देखो अनगारधर्मामृत श्लोक ४२ । ४-यथाहि पुरुषस्य पुरुषश तिरियमतीन्द्रियाप्य गनाजनांगसंभोगापत्योत्पादनेन च विपरि धैर्यावलम्बनेन वा प्रारब्धवस्तु निर्वहन वा निश्चेतु ं शक्यते तथा आत्मस्वभावतयाऽतिसूक्ष्मयत्नमपि सम्यक्त्वरत्नं प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्वेरेव वाक्यैराकलविसुं शक्यम् | यश० आ० ६५० ३२३ /
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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