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चंद्रिका टीका अठारशा शोक दोनों गुणों का पहुन कुछ निकट संबन्ध है । जो स्वयं मूह दृष्टि है वह प्रभावना नहीं करसकता दसरों को जिनशासनके माहात्म्य से प्रकाशित वही व्यक्ति कर सकता है जिसकी कि हि स्वयं अमूह है | अमूहद्दष्टि सम्यग्दृष्टि की जिनशासन के माहाग को प्रकाशित करने में स्वभारतः ही प्रवृत्तियां हया ही करती हैं। इस तरह की प्रवृत्तियां यह बिना किसी शंका कांक्षा या विचिकि
साके तो करना ही है परन्तु वैमा करने में वह अज्ञानान्धकार के किसी भी धांशसे मुक्षित भी नहीं हुआ करता । क्योंकि एसा होने से ही वह जिनशासन के माहात्म्पसे दूसरोंको प्रभावित कर मकता है। यह बात पहले दृष्टानों द्वारा भी स्पष्ट की जा चुकी है।
सम्यग्दर्शन के लक्षणा में जो "अष्टांग" ऐसा क्रिया विशेषण दिया था उसका साष्टीकरण करनेकेलिए आठ अगोंका स्वरूप यहाँ तक बताया गया है । यही एक विशेषण है जो सम्पग्दर्शन के वास्तविक स्वरूप को बताता है । यद्यपि प्राचार्योंने अपने २ प्रकरण पर सम्यग्दर्शन के भिन्न २ अन्य अनेक प्रकार से भी लक्षण बताये हैं परन्तु प्रकन लक्षण में उन सभी का प्रायः अन्न र्भाव होजाता है।
सम्यग्दर्शन के आठ अंग भी दूसरी २ तरहसे अन्यत्र नार्योंने बताये है। किन्त यहा पर बताये गये ये बात अग अपनी एक विशिय असाभारता रखते हैं। क्योंकि इनके द्वारा सम्पग्दर्शन के स्वरूपका विधिप्रतिपेवरूप दोनों ही तरह परिचय प्राप्त होता है। यहाएर प्रथमानुयोग करमानुयोग चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इस तरह चारों ही अनुयोगों में वर्णित सम्यग्दर्शन से सम्बन्धित समस्त तच्चों को दष्टि में रस्सागया है। तथा सम्पग्दर्शन के अस्तित्वात अनुमानद्वारा ज्ञान होनेकेलिये साधनरूप में बतायेगये प्रशम संवेग अनुकम्पा और आस्तिक्यका भी इनके साथ अविनाभाव सिद्ध होता है | और निरनिचार सम्पग्दर्शन से युक्त जीवको अन्तति और बहिः प्रवृनि किस तरह की हुआ करती है इस बातका भी इनसे दोष होजाता है।
पौराणिक एवं ऐतिहासिक जिन महान व्यक्तियोंने उपर्युक्त सम्पग्दर्शन के पीठ श्रीगोंका भादर्श पालन किया उनका नामोल ख स्वयं ग्रन्थकार आगे कर रहे हैं। ध्यान रहे ये नाम एक एक अंगके पालन करनेमें आदर्श व्यक्तियोंके हैं। जिनके कि चरित्रका अध्ययन करने से इस वातकी शिक्षा मिलती है कि किसी भी अंगका पालन श्रादर्श रूपमें किस तरह होना चाहिये
और उन में से उस केवल एक ही अंगका पालन जबकि उनको अनन्त अधिनश्वर निधि पूर्ण सिद्ध अवस्थातकका कारण वनगया तो सम्पूर्ण अंगोंसे युक्त सम्यग्दर्शन के प्राप्त करने वाले व्यक्ति यदि सहज ही परमाप्त अवस्थाको प्राप्त करलें तो इसमें श्राश्चर्य ही क्या है।
सम्यग्दर्शन की उद्भूति अपने विपक्षी मोहनीय कर्मकी पांच अथवा सात प्रकृतियों के उपशम सय अथवा क्षयोपशमसे हुआ करती हैं। अनादि मिध्यादृष्टि जीव के दर्शनमोहनीयकी ए मिथ्यात्व और चारित्रमोहनीय में परिगणित चार अनन्तानुबन्धी कपायों के उपशमसे सर्वप्रथम
५-सवेश्रोणिज्येओ निन्दा गरहा य उवसमो भयो । पच्छम अनुकंपा अगुणा इति सम्मते