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..... भद्रका का मालही दर्शनामरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलैः।
प्रत्यवस्थापन प्राज्ञैः स्थितीकरणमुच्यते॥१६॥ ___ अर्थ—सम्यग्दर्शन अथवा सम्यकचारित्र यद्वा दोनोंही से डिगते झुओंको धर्मप्रेमियों द्वारा जो उसी धर्ममें फिरसे स्थापन कर दिया जाता है. प्राज्ञ-गणधरादिन उसीको स्थितीकरण कहा है। ___प्रयोजन---जो जिस धर्मका धारक या आराधक होता है वह उसके रहस्य और फलस परिचित तथा उसमें रुचिमान भी हुआ करता है। किंतु याह एक लोक प्रसिद्ध उक्ति है कि... "जिन नहि चरखो नारियल, उन्हें काचरा मिट्ट"। इस उक्ति के अनुसार जिनको परमवीतराम जिनेन्द्रमगवान्के प्ररूपित लोकोत्तर अनन्त सुखशान्तिके स्वरूपका श्रद्धान ज्ञान नहीं हुआ और उसके साधनभूत वास्तविक धर्मका जबतक परिचय नहीं हुआ है तब तक यह जीव धर्मके नामपर गमीद्वपिनोंके कथित लोकिक बसिक साता या प्रसन्नताके साधनभूत अथवा इसके विपरीत असातारूप विषयों में ही यद्वा नवा श्रद्धान आचरण किश करता है और उन्हींको महान् समझता नथा उन्हीं में रूचि भी रखता है। तथा प्रायः ऐसी धारमा भी रखता है कि इसके सिवाय और सब धर्म मिथ्या एवं निःसार हैं । संमारी जीव जबतक मोह और कषायका अनुचर बना हुका है तबतक यह विषयाशाका भी दास है और जिनसे उसकी पूर्ति या सिद्धि होती हुई मालुम होती है उनीमें रुचि और प्रधुचि भी किया करता है। किंतु मोहका भाव जब नहीं रहता अथवा मन्द मन्दतर मन्दनम होजाता है और सद्गुरुके उपदेशका लाभ होजाता है तब उसकी दृष्टिम सत्य तव प्राजाता है । सत्य तस्यसे मालव है अपना और परका वास्तविक स्वरूप । जिसके कि फलस्वरूप संसार और मोक्ष तथा उनके कारण एवं उनका स्वभाव भेद भी दृष्टि में श्राजाता है। अब उसकी दृष्टि उस सत्य और प्रशस्त विषयको वास्तवमें ग्रहण करलेती है, तब वह दृष्टि सम्यक प्रशस्स---समीचीन--यथार्थ आदि नामों से विशेषणों से युक्त कही जाती है। इस तरहकी दृष्टि जिन जीवोंकी बन जाती है वे ही सम्यग्दृष्टि कहे जाते हैं। उनको फिर कोई भी पर अथवा मिथ्यात्व सुहाता नहीं है।
ठीक ही है-पीत्वा पयः शशिकरघुतिदुग्धसिन्धोः, दारं जल जलनिधेः रसितुक इच्छेतर" उस जीवको मन वचन कायकी प्रवृत्ति भी स्वभावतः अपूर्व बन जाती है -मिथ्यादृष्टि जैसी नही रहती। अतएव कुदेव कुशास्त्र कुगुरु और कुधर्ममें उसको अरुचि तथा परमार्थभूत प्राप्त मागम गुरु और धर्ममें उसको सुरुधि हुआ करती हैं । उसकी दृष्टिमें आत्माका एवं अपना शुद्ध स्वरूप माजानेसे उसीको सिद्ध करनेका वह अपना लक्ष्य बना लेता है । अथवा कहना चाहिये कि उसका वैसा लक्ष्य स्वयं ही बन जाता है। अपने लक्ष्यकी प्राप्तिमें जो भी वाब भव१-आदिनाथस्तोत्र--भकामर पथ ११ । २–तन पात् तत्परान पृच्छत् तदिच्छेत् तत्परो मवेत् । येनाविद्यामय रूपं त्यक्ता पियामय बनेत् । अविवाभिरे ज्योतिः परं ज्ञानमय महत्।।
सत्युष्टच सदेष्टम्यम सदरष्टल मुमभिः ।।