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________________ (स्मकरपडभावकाचार १३४ स्थितिकरणके साथ, निर्विचिकित्सा का वात्सल्य के साथ, अमूढदृष्टि का प्रभावनाके साथ मुख्यतया सम्बन्ध समझना चाहिये ! उपगृहनादिक विषयं स्य और पर दोनों ही हैं। जो स्वयं निःशंक नहीं है चलायमान प्रतीति है या भयाक्रान्त है तो वह अपने में भी उपगृहन एवं उपहण नही कर सकता दूसरमें तो करेगा ही क्या । कांधावान् व्यक्ति अपनेको या दूसरेको गिरनेसे बचा नहीं सकता | काशाके छोडनेपर ही स्थितीकरम संभव है। कांक्षा-इच्छा-आशाके भाम तो गिरानेवाले हैं । सधर्मायोंमें म्लानि रखनेवाला उनमें वत्सलता भी किस तरह कर सकेगा ! ग्लानि और निश्का प्रेम दोनों माव एक साथ संभव नहीं । जो स्वयं मूष्टि है यह धर्मकी वास्तविक प्रभावना नहीं करसकता अन्तरंग या बहिरंग कैसी भी प्रभावना जब तक दृष्टि म्ह है तबतक नहीं हो सकती । इसतरह विचार करनपर मालुम होता है कि जबतक सम्यग्दर्शन शंका आदि दोषोंसे दक्षित है तबतक इन गुणोंमें भी यथार्थतः प्रवृत्ति नहीं हो सकती । निर्मल वस्त्र पर ही कोई रंग चढ़ सकता है। मी निरीगता प्राप्त है वही सवलताको सिद्ध कर सकता है। निर्व्यसन ही विद्याध्ययन में सफल हो सकता है और निरुत्साह व्यक्ति युद्ध में विजयी नहीं हो सकता । उसी तरह शंकादि दोपोंसे रहित ही व्यक्ति उपधहणादि गुणों को प्राप्त कर सकता है। और जो निःशंक है वह तो अवश्य ही उपगृहन और उपहणमें प्रवृत्त होगा अन्यथा यदि वह बैसी प्रचि नहीं करवा तो समझना चाहिये कि उसका सम्पग्दर्शन भी अभी पूर्ण नहीं है--समल है अथवा अधूरा है। महापण्डित श्राशावर जीके कथनानुसार भी मालुम होता है कि इस गुस्से विशिष्ट पक्ति उपगूहन और उपय हम दोनों कार्य किया करता है। अन्तरंगमें सम्पग्दर्शन अथवा रत्नत्रय रूप अपने बन्धुकी शक्तिको आच्छादित करनेवाले कषायरूपी राक्षसको चमादिगुण रूपी अस्त्रके द्वारा निवारण करनेका और बाहिरमें धर्म के उपत्रहण-संवर्धन-उपचय करनेकी सद्बुद्धिसे अज्ञानी अथवा असमर्थ अपने संधर्मात्रओंके दोषोंको जिनेद्रमक्तको तरह मारवाहित करनेका उसे प्रयत्न करना चाहिये । इस तरह प्रतीतिकी चलायमानता अथवा भय आदि दोषोंसे रहित निरतीचार सम्पष्टि की स्व और परमें जो उपगूहन वथा उपकरण प्रवृत्ति होती है यही सम्यग्दर्शनभ पापा अथवा पहला गुण है जिसके कि होनेपर ही वह सम्यग्दर्शन जन्ममरवकी संततिका उच्छादन करनेमें समर्थ हो सकता है। अब क्रमानुसार प्राचाय स्थितीकरण गुणका स्वरूप बताते हैं।१- स्वबन्धमभिभूष्णु कपायरशः सप्तुं क्षमादिपरमास्त्रपरः सदा स्यात् । धर्मोपवृक्षण धियाऽवलमालिशास्मयूझ्यात्ययं स्पारयितुच जिनेन्द्रमकः मन० २.१०५ ।। मानुसार प्राकमेसे पांचो, किसु कसम्मका बोध करानेबाने अन्तिम चार गुणों में प्रथम ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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