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________________ १२३ --- -- - - - - - - ..चंद्रिका टीका पन्द्रहां भोक मनलब यह कि चाहें तो उपगृहन नामसे इस अंगको कहा जाप चाहें उपत्र इस नाम से दोनोंमें विरोध नहीं है । एक जमा योग लिईसकी अपेक्षा है, दूसरे में गुणों के बहानेकी । दोनों विषय तथा क्षेत्र भिमान हैं। अत एव जहां सवर्षा के दोष दिखाई दें और उनका निहरण किया जाय तो वहां उपगृहन की प्रधानता होगी और जहां अपने अथवा अन्य सधर्मा के गुखों को पाने मात्र की अपेक्षा है वहाँ सम्पदृष्टि की उस प्रकृतिको उपहण नामसे कहा जायगा। जहां सम्यदर्शन साङ्गोपाङ्ग है यहां दोनों ही गुण पाये जायगे । यही कारण है कि सोमदेव आचाई इस अंगका व्याख्यान करते हुए न केवल दोनों शन्दोंका ही प्रयोग करते हैं किन्तु दोनों शब्दों के अनुसार दो नरहके कार्यो अथवा कर्तव्योंका मी उपदेश देते हैं। और वैसा न करनेपर सम्यक्त्वकी हानिका भी ख्यापन करते हैं। इसके मिवाय उपगहन शब्द का अर्थ आलिंगन भी पाया जातार है । तदनुसार तात्पर्य यह होगा कि जिसतरह माता अपने पुत्र पुत्री के दोषों को घमा करती है उनके दोषोंको प्रेमपूर्वक निकालने—दर करने का प्रयत्न करती है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि को भी पाहिपे-उसका भी कतेय है कि सधर्माओंके दोषों को देखकर वह उनकी निन्दा-मत्सेना आदि में प्रात न होकर उनका आलिंगन करें-गले लगाकर-प्रेमपूर्वक उनको निर्दोष पनाने की चेष्टा करे । और माप ही उनके गुणोंको बहाने का भी प्रयत्न करे। __ यथायोग्य प्रसंग पाकर वैसा करना सम्पग्दृष्टि को उचित है । जहां दोप दिखाई देवहां उन के निकालने का यत्न करे और जहां गुणों को बढ़ाने की आवश्यकता मालुम हो वहा गुणोंको बडाने का प्रयम कर । क्योंकि दोप और गुण परस्पर विरोधी है। दोनों बातें एक साथ नही रह सकती दोष दूर होनेपर गुण पढ़ेंगे अथवा गुण बढेगे तो दोप भी दूर होंगे | अथवा किसी व्यक्तिमें अनेक गुण हैं परन्तु एक साधारण अथवा असाधारण दोष है तो सबसे प्रथम उस दोष को निकालने का प्रपल होना चाहिये | कोई व्यक्ति भनेक दोषों से पूर्ण है परन्तु एक महान् उपयोगी गुण से पुक्त है तो उसके उस गुणका आदर कर उन दोषों से भी वह सर्वथा रहित पन जाय ऐसा प्रपत्र करना चाहिये। कदाचित् उस व्यक्तिका सुशार समय न हो तो उस व्यक्ति की तरफ इस तरहसे उपेक्षा करनी चाहिये जिससे कि धर्म की वाच्यता-निंदा न हो। जैसाकि जिनेद्रमत सेठने किया। इन गुणोंके सम्बन्धमें विचार करनेपर मालुम होता है कि पूर्व कथित निरतीचारतारूप पार गुणों के साथ इन विधि या कृतिरूप चार गुणों का विशिष्ट सम्बन्ध है जो कि गथाक्रमसे मिलान करनेपर मालुम हो सकता है। तदनुसार निःशंकित का उपगूहन या उपहयाकेसाथ, निःकांवितका १–उपगृहस्थितीकारी यथाशक्ति प्रभाषनम । वासल्यं च मबत्ते गुणाः सम्पम्त्वसंपरे॥१॥ त्र. सान्त्या सत्येन शौचेन मादेवनार्जवन । सपोभिः संयमैदानः इत्सिमयणम् ॥२॥ सवित्रीय तनूजानामपरा सधर्मसु । देवारमादसम्पन्न निगद् गुणसम्पदा ॥३॥ नसतस्यापराधेब किं धर्मो मचिनो भोन् । नहि मेके मृत पाति पयाधिः पूनिगम्यताम् ॥४॥दोपं गाति नो जात मख धर्म म । कुर मन्त्र मम्मको सिमागमति स्मिते ॥शा
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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