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________________ (लकरपष्टश्रावकाचार प्रकट करने से उप्त व्यक्ति के सुधारकी अपेक्षा विगडने की कहीं अधिक संभावना रहा करती है। अत एव उसके दोपोंको प्रकट नहीं करना चाहिये। इसके सिवाय अनेक अज्ञानी लोग उस व्यक्ति के दोपको निदर्शन बनाकर मार्ग को ही सदोप बताने की चेष्टा किया करते हैं । इसलिये वैयनिक दोषके कारण मार्ग की वाच्यता न हो इस हेतुसे भी उस व्यक्ति के दोषको प्रकट न करना ही श्रेयस्कर है । अथवा वैयक्तिक त्र टियोंको आधार बनाकर जो मिथ्यादृष्टि एवं स्वयं असमर्थोक द्वारा सामान्यतया स्वतः शुद्ध रत्नत्रयधर्म की निन्दा होती हो तो उसका संशोधन करना भी उपगृहन अंग है। . उपगृहन१—गुह थातु संदरणार्थक है। इसका भी भाशय संवरण, प्रमार्जन, आच्छादन है। तात्पर्य- सम्यग्दर्शन के इस पांचवे अंगका नाम उहगहन है जिसका कि भाशय भास्मकल्याणकारी धर्म के विषय में किसी प्रकारको निन्दा अपच न होजाय इस सद् भावनासे उन दोषोंको छिपाना अथवा उनका परिहार आदि करना है जिससे कि विवक्षित वैयक्तिक दोनोंको देखकर अल्पज्ञानी उस मार्ग से ही पराक मुख होकर परमोचम कल्याण से ही वञ्चित न होजाय। अथवा पितहदय मिध्याज्ञानियों द्वारा स्वभावतः पवित्र एवं शुद्ध मार्ग का अवर्णवाद या निन्दा हो । कदाचित कहीं वैसा होता हो तो उसका उचित परिहार कर सन्मार्गके विषय में ग्लानि न होने देना सम्यक्त्वका प्रथम कार्य है। आगममें उपगृहन की जगह उपहण नामसे भी इस बगको बतायार है । उपरहण का अर्थ बहाना है। अर्थात् रत्नत्रयात्मक अथवा उत्तम चमादि दशविध धर्म की बहानेका प्रयत्न करना उपहण अंग है । और इसके विरुद्ध-प्रवृत्ति न यदाना सम्यग्दर्शन का दोष है। उपगृहन और उपहण भिन्न विषय तथा दिशा में प्रवृस होते हैं फिर भी वे सम्यग्दर्शनके ही गुण हैं। और एक ही गुण के दो प्रकार हैं। मतलर यह कि सम्यग्दृष्टि जीव सधर्मामों के अबान अथवा असमर्थ ताके कारण उत्पन्न हुए दोषोंका सो पाच्छादन करता है और उनके तथा अपने गुणोंको बढ़ाने का प्रयत्न करता है । यदि इस तरह की प्रवृत्ति उसकी नहीं होती सथर्मामों के दोषों का श्राच्छादन तथा अपने एवं अन्य सधाओंमें गुणों को बढ़ानेका प्रयह यदि वह नहीं करता तो कहा जा सकता है कि अभी उसका सम्यग्दर्शन निष्फल है अथवा निमुख है। और यही बात उसकी अंगहीनता को स्पष्ट करदेती३ है। किसी के दोषोंका निर्हरण यदि वह अन्य व्यक्तियों के हितकी दृष्टि से किया जाता है तो वैसा करनेवाला वैयक्तिक पक्षपान के दोपका भागी नहीं माना जा सकता । और यदि उस व्यक्तिके सुधारका हेतु है तो भी उसका कार्य अनुचित नहीं कहा जा सकता। १-गुह धातु से करण या अधिकरण अर्थ में अनट प्रत्यय होकर और नियमानुसार द्वस्व उकारको वीर्य होकर यह शब्द बनता है। अन्य गुह्यते अनेन अस्मिन् वा उपगृहनम् ।। - यथा-धर्म स्वबन्धुमभिभूष्णु कषायर चाः, शेतकमादिपरमास्त्रपरः सदा स्यात् । धर्मोपरगनिया: बलबालिशात्मयूथ्यात्पर्य स्थगयितुच जिनेन्द्रमक अन 401-२४ोपं गाति नो बाचं स्त धर्म न होत् । दुष्करं तत्र सम्यक्त्व जिनागमरिस्थिते ॥ यश०६-१
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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