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________________ after टीका पन्द्रहवां १३५ उपदेशके प्रसङ्ग में वृद्ध शब्दका अर्थ वयोवृद्ध करने की अपेक्षा गुणवृद्ध करना उचित सुन्दर संगत और अभीष्ट है उसी प्रकार बालके अर्थ में भी समझना चाहिये । नव दीक्षित मुनि क्योवृद्ध होनेपर भी अपनी चर्या आदि के विषय में निष्यात अभ्यस्त दृढ निष्ठित जबतक नहीं हुआ है तब तक जिसतरह वह बाल मुनि कहा जा सकता है इसीप्रकार इसके विरुद्ध कुमार अवस्था थपचा पस्था में जो दीचित है यदि वह अपने योग्य सभी विषयों में कुशल, पूर्ण, दृढ़, अभ्यस्त नमा ज्ञान विज्ञान से युक्त, और आगम श्रानाय का जानकार हैं तो वृद्ध ही है । वह सुनिसंका शासन भी करने योग्य माना जा सकता है । जरद कुमार अथवा वर्तमान २४ तीर्थकरों में पांच वीर कुमार अवस्थामें दीक्षित हुए इसलिये उनको बाल शब्द से नहीं कहा जा सकता। वे तो दीया अनन्तर ही जिनलिङ्गी हुए हैं और मानेगये हैं। अत एव बालका अर्थ गुणों की अस्पता करना ही उचित है। यदि कभी कहीं मिथ्यादृष्टि अज्ञानी के लिये बाल शब्दका प्रयोग किया जाता हैं तो वहां पर भी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान की कभी ऐसा अर्थ समझना चाहिये। और कोई वयोवृद्ध ज्ञानी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान गुणकी कमी के कारण बाल न कहा जाय, यह बात नहीं है । अशक्त --- शब्दका अर्थ असमर्थ है। यह असमर्थता अनेक कारणोंसे और अनेक प्रकारकी हुआ करती है। अन्तरङ्ग में मोह कषाय अनुत्साह आदि मुख्य कारण हैं । और बाह्य में शरीर की विकलता - पूर्णता दुर्बलता, अयोग्यसंगति आदि परिस्थिति कारण हुआ करती हैं। कभी कहीं अन्तरङ्ग बहिरंग दोनों कारण रहा करते हैं और कहीं एक ही कारण रहाकरता है। तीव्र मोही अथवा तीव्र कषायाविट प्राणी अपनी या अन्यकी वैयक्तिक कमजोरी, कायरता, मानसिक या शारीरिक दुर्बलता आदि को दृष्टि में न लेकर अथवा स्वीकार न करके सामान्यतया उस मार्ग को ही दुषित-अयोग्य सदोष, निरर्थक अक्ष हानिकर बताने की चेष्टा किया करता है। लोगोंकी विभिन्न प्रकारको चेष्टाओं के कारण जो अवर्णवाद एवं निन्दा लोगों में कुख्याति फैलती हैं उसी को कहते हैं "वालांशकजनाश्रया वाच्यता ।" यों तो वाच्यताका अर्थ वर्शनीयता होता है परन्तु खासकर यह शब्द निन्दा अपकीर्ति अर्थ में रूढ अथवा प्रसिद्ध हैं। थाश्रय शब्दका श्राशय कारण, निमिच, आधार समझना चाहिये। पाल एवं अशक्त पुरुष हैं कारण, निमित्त, अथवा आाधार जिसके ऐसी वाच्यताका यदि सम्यग्दृष्टि निराकरण करता है तो उसके सम्यग्दर्शन को उपगूहन गुणसं युक्त समझना चाहिये । प्रमार्जन्ति मृज धातुका पाठ अदादि और चुरादि दोनों ही गणों में पाया जाता है, न उपसर्ग के साथ दोनों हीका वर्तमान अन्यपुरुष बहुवचन में यह प्रयोग बनता है अदादिगणमें भ्रातुका अर्थ शुद्धि और चुरादिगणमें शौच तथा अलंकार अर्थ बताया है। यहां पर प्रसङ्गानुसार श्रदादिंगकी शुद्धयर्थक धातुका प्रयोग मालुम होता है। जिसका श्राशय अच्छी तरह शुद्धीकरणसे है। मतलब यह कि अज्ञान अथवा असमर्थता के कारण किसी व्यक्ति में यदि कोई दोष दिखाई दें तो उसके १ श्रीवासुपूज्य, मलिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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