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रत्नकरावकाचार
आदर्शवाद के नामसे भी कहा जा सकता है। जो कि मिथ्यात्वका ही कार्य और कारण हैं। । तथा सबसे बड़ा भयंकर पापर हैं। सम्यग्दृष्टि जीव इस तरहके कार्यको पसंद तो नहीं ही करता सहन भी नहीं कर सकता । वह शक्तिभर उसको दूर करने का ही प्रयत्न करना अपना कर्तव्य समझता हैं । और वैसा ही करता भी हैं। अतएव वैयक्तिक दोषोंके बदले शुद्ध निर्दोष एवं जगत्के परम हित रूप मार्गकी निन्दा छिपाना, दवाना निराकरण करना आदि अपना आवश्यक एवं पवित्र कर्तव्य समझकर यदि सम्यादृष्टि पैसा करता है तो वह अपने सम्यग्दर्शन की स्थिति या विशुद्धिको ही प्रकट करता है। क्योंकि वैसा करनेसे कमसे कम इतना तो अवश्य ही स्पष्ट हो जाता है कि इसका सभ्यग्दर्शन इस विषय में महीन नहीं है अथवा गुणसहित हैं और अवश्य ही अपने वास्तविक फलको उत्पन्न करने में समर्थ हैं। इस तरह शुद्धमार्गके विरुद्ध फैलते हुए अवाद और उसकी निन्दाको दूर करनेके लिये अन्तरंग में उस जीवको प्रोत्साहित करना सम्यक्दर्शन के जिस गुणका काम है उसीको उपगूहनअंग कहते हैं। यह स्पष्ट करना ही इस कारिका के निर्माणका प्रयोजन हैं ।
शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ --
स्वयं विना किसी पर सम्बन्ध के स्वभावसे अथवा स्वरूप से । शुद्ध-निर्मल, पवित्र या स्वच्छ | मार्ग - एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने का एक अवस्थासे दूसरी अवस्था में परिणत होने का, अथवा किसी अन्य विवचित वस्तु को प्राप्त करने का जो क्रम और कारण अथवा उपाय हैं उसको कहते हैं मार्ग । बाल शब्द का अर्थ है अज्ञ । जो जिस विषयमें नहीं समझता वह उस विषय में बाल कहा जाता हैं । न्याय व्याकरण साहित्य छन्द शास्त्र आदि का जानकार भी हो यदि सिद्धान्त, दर्शन, धर्म का जानकार नहीं है तो वह उस विषयमें बाल है । फलतः अर्थ थोड़ी या छोटी उम्रका नहीं करना चाहिये। जिस तरह वृद्धों की संगति करनेके ---असद्धत अर्थकं प्रतिपादनको अववाद कहते है । यह अवबाद यदि सम्यग्दर्शनके विषयभूत आप्त देव (केवली) आगम (श्रुत) तपोभूत् (संघ) और स्वयं मोक्षमार्ग रत्नश्रय तथा उसके अविरुद्ध एवं साधनरूप प्रवृतियों (धर्म) अथवा उन प्रवृत्तियोंके फल ( देवगति आदि) के वास्तविक स्वरूपके विरुद्ध असद्भूत दोषों के प्रख्यापनरूपमें होता है तो अवश्य ही उससे दर्शन मोह (मिध्यात्व) का बन्ध होता है । अतएव अबवाद मिश्रा असाधारण कारण हैं। यथाकेवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादी दर्शनमोहस्य । त सू० ६०१: । श्रवबाद जिस तरह मिध्यात्वका कारण है,
तर मिध्यात्वका कार्य भी है। क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता | मिध्यात्वका कारण अवर्णवाद है । और सिध्यास्वका बन्ध प्रथम गुणस्थानमें ही सम्भव है। ऊपर उसकी बन्ध व्युच्छिन्ति है फलतः जहांतक मिध्यात्वका उदय है वहनक अववाद भी हो सकता है। यह स्पष्ट होजाता है। इसीप्रकार निन्दा के विषय में सम्मना चाहिये । सद्भल दोषोंका पगेच कथन निन्दा है । उसका फल नोचग का बन्ध है जो कि दूसरे गुणस्थानतक ही संभव है। क्योंकि आगे उसकी क्युरिवति है । सासादन भी मिध्यात्वचा ही प्रकार है । सारांश यह है कि ये दोनों वर्णवाद और निन्दा सम्यग्दृष्टिके नहीं पाये जा सबसे । संसारका सबसे बडा कारणरूप पाप सब पापोंका बाप मिथ्यात्व है।
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३- यो यत्रानभिज्ञः स तत्र बालः । यथा श्रधीतव्याकरण साहित्य सिद्धान्तोऽप्यनधीत न्यायशास्त्रो न्याये बालः