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________________ पाका टाका पन्द्रहवालाक रखनेवाले तज्ज्ञ व्यक्ति ही समझ सकते हैं। किंतु यहाँपर जिन गुणोंको श्राचार्य बताना चाहते हैं उनका सम्बन्ध मुख्यतया बाह्य प्रवृत्तियोंसे है । जिनको कि देखकर सर्वसाधारण व्यवहारी जीव भी उस प्रवृत्तिके करनेवाले के सम्यग्दर्शनको जान सके-समझ सकें और मान सके । तथा पैसा मानकर उसके साथ सम्यग्दृष्टि जैसा व्यवहार कर सकें। ये पाहा प्रवृत्तियां चार तरहसे संभव हैं जिनको कि यहां और अन्यत्र भी सर्वत्र आगममें उपगृहन अथवा उपव्रहण और स्थितीकरस वात्सल्य तथा प्रभावनाके नामसे बताया गया है । यद्यपि उपगूइनादिको स्वयं अपनेमें भी धारण करनेके लिये कहागया है और वह ठीक भी है। किंतु प्रशमादिकी दरह उसगूहनादिका विषय स्व ही न होकर स्व और पर दोनों ही है । तथा पर विषय प्रधान है। उसके द्वारा स्व तो स्वयं ही समझमें आ जा सकता है। क्योंकि जो परके उपगृहनादिमें प्रवृच होगा वह अपना उपगृहनादि स्यों न करेगा, अवश्य करेगा। अतएव यहां परके उपगृहनादिमें सम्यग्दृष्टि जीव अवश्य ही प्राप्ति करता है यह बताना अभीष्ट है। इसलिये इस कारिकाका निर्माण हुआ है जिससे सम्यस्त्वका अविनाभावी कार्य एवं सम्यग्दृष्टियोंका आवश्यक कर्तव्य क्या है यह स्पष्टरूपसे समझमें या संके यही इसका प्रयोजन है। इसके सिवाय पसर: सामान्य विशेषात्मा बायको सीकर न समझकर अथवा न मानके कारण जो इस विषय में एक प्रकारकी लोगों में भ्रान्त धारणा पाई जाती है उसका परिहारकर वास्त. विकताका निदर्शन करना भी इस कारिकाका प्रयोजन है। क्योंकि वस्तुमात्र जिस तरह सामान्यविशेषात्मक है उसी तरह थर्मके भी सामान्य और विशेष दो प्रकार है । सामान्यके अभावमें उसके किसी भी विषक्षित विशेषका प्रभाव कहा जा सकता है । परन्तु इसके विपरीत किसी भी विवक्षित विशेषके प्रभाव या विकार अथवा न्यूनाधिकताको देखकर सामान्यमें भी वही दोष यताना या मानना युक्तिसंगत और उचित नहीं है। __धर्मका जो सामान्य स्वरूप है वह सिद्धान्ततः युक्त है, निर्याध है, और यथाविधि पालन करनेपर अपने वास्तविक फलका जनक भी है। किंतु उसका पालन करनेवाले व्यक्ति हमा करते हैं। और वे व्यक्ति सभी एक सरीखे नहीं हुआ करते । उनमें अन्तरङ्ग योग्यता या अयोग्यताकं न्यूनाधिक रहनसे अनेकों ही प्रकार हैं। और द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप बाय परिस्थिति अथवा निर्मित भी सबके समान नहीं हुआ करते । अतएव अन्तरंग और बहिरंग सभी परिपूर्ण कारण कलापसे युक्त व्यक्ति जिस तरह धर्मका यथावत् पालन कर सकता है वैसा अन्य नहीं। फलतः यदि कोई व्यक्ति धर्मका जैसा चाहिये वैसा पालन नहीं कर रहा है तो प्रतिमान व्यक्तिको उचित है कि वह उस व्यक्तिकी वैयक्तिक ऋटियों या कमजोरियां पर भी दृष्टि दे। परन्तु ऐसा न करके यदि वह उन वैयक्तिक दोपों या अपराधीको सामान्य धर्मक मत्थे महनेका अयन करता है तो यह कार्य न केवल अज्ञानमूलक ही है किंतु निन्दा और
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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