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________________ रत्मकरगहनाषकाचार - - - - - - - - . .. - . . - . स्त्यं शुद्धस्य मार्गस्य वालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्रमार्जन्ति तद्वदन्त्युपगृहनम् ॥१५॥ अर्थ–रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग स्वभाव से ही शुद्ध है। यदि अज्ञानी अथवा असमर्थ लोगों के निमिनसे उसकी वाच्यता-निंदा हो या संभव हो तो उसका जो प्रमार्जन-निराकरण अथवा पाच्छादन करनेवाले हैं उनके उस गुणको प्राचार्य उपगृहन कहते हैं।। प्रयोजनऊपर इस कारिका के प्रारम्म में जो उन्धानिका दी गई है उससे इस कारिका का प्रयोजन बात हो जाता है। इसके सिवाय अनादि मिथ्यादृष्टि सादि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि इन सबकी प्रवृत्ति एक सरीखी नहीं हो सकती। उनकी बाह्य प्रवत्तिके अंतरंग कारण भूत परिणामोंमें बलवत्तर स्वाभाविक और महान अन्तर अवश्य रहता है। यह बात युक्ति अनुभव और भागम से सिद्ध है जहां कार्य भेद है वहां कारण भेद भी अवश्य है यह कथन युक्तिसंगत है। एक व्यक्ति तो मानवंशिक रोगकै कारण प्रारम्भ से-जन्मसे ही पीडित है दसरा स्वस्थ था, परन्तु मिथ्या आहार विहार के कारण रोगी होगया है। तीसरा वह है जो रोग से मुक्त होकर पुनः रोगग्रस्त हो गया है। इन तीनोंकी अंतरंग वहिरंग प्रवृत्ति एक सरीखी नही होसकती क्यों कि निदान भेदके अनुसार चिकित्सा और उसके कान पन्नाला जाता है। इसीतरह प्रकृतमें भी समझना चाहिये। निदान परीक्षामें प्रात नैध रोगीकी वाम प्रषियोंको देखता है कि इसकी किस विषय में रुचि है इसको किस तरह का चलना फिरना शयन स्नान आदि विहार पसंद है और वह अनुकूल है अथवा प्रतिकूल । इस सब पातको समझ लेने के बाद जो चिकित्सा की जाती है वही वास्तविक सफलता दे सकती है अन्यथा नहीं। इसी प्रकार किस तरहका सम्यग्दर्शन वास्तविक मोधरूप फलको उत्पन्न करने में समर्थ और सफल हो सकता है। इस विषयके विशेषज्ञ एवं संसाररोगके असामान्य चिकित्सक भाचार्यन रणत्रयरूप भौषधका यथाविधि-काल और क्रमके अनुसार सेवन करना पावश्यक बताया है। उसमें सम्यग्दर्शनरूप औषध २५ मलदोष रांइत होनी चाहिये यह कहागया है । इस सम्बन्धमें जिन भतीचाररूप दोषोंसे उसे रहित होना चाहिये यह बात तो ऊपर चार कारिकाओंके सारा बता दी गई है। अप यह बताना भी जरूरी है कि उसमें किन२ गुणोंका पाया जाना उचित और भावश्यक है क्योंकि दोषोंका अमाव और गुणोंका सद्भाब सर्वथा एक चोज ही नहीं है, दोनोंका ही विषय मिष है। सम्यक्त्व सहित जीव विवक्षित गुणोंसे युक्त है या नहीं यह बात उसकी असाधारण पत्तियोंसे ही जानी जा सकती है ययपि प्रशमादि ४ भाव भी सम्यास्तके चिनरूपमें बताएगये है। किंतु बे समी भन्तरङ्ग है। पास क्रियाके साथ उनके अधिनाभावको समझना सामान्य बात नही है। स्वयं अनुभव रखनेवाला ही सम्यग्दृष्टि और मिथ्यारप्टिके प्रशमादिके अन्तरको समझ सकता है। ये सम्यकपित नाशिक शमादि हैं और ये मिण्यारप्टिके मामासरूप प्रशमादि में यह बात भनुमय
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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