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________________ लम्बन हैं उन्हें भी बह रुचिपूर्वक अपनाता है। यथाशक्य सिद्धिके उन साधनोंमें भी प्रचि किया करता है जो कि सभीचीन देवशास्त्रगुरुकी आराधना आदिके रूपमें बताये गये हैं। इस तरहके सम्यग्राष्टियोंकी रुचिपूर्ण प्रचि चार तरहकी हो सकती है।-१ सधर्माओंके मज्ञान अथवा असमर्थताके कारण धमका प्रभाव कम न होने देना । जो भी सधर्मा या विधर्मा जिन्होंने अभी तक धर्म धारण नहीं किया है और जो कि यद्वा तद्वा कारणों का बहाना बना कर स्वयं उक्त धर्मको धारण करनेसे पराङ मुख रहते हैं तथा दूसरोंको भी पसंमुख रखनेकी चेष्टा करते है उनकी उक्तियों और कुयुक्तियोंको सूक्तियों सदुक्तियों-तथा सयुक्तियोंके बारा निराकृत करदना प्रभावहीन बना देना । २---जो धर्मको धारण कर चुके हैं वे किसी भी अन्तरंग मोह कषाय अज्ञान प्रमाद अथवा बाह्य मिथ्योपदेश कुसंगति आदिकै कारण धर्मसे हिंग रहे हों, उनको उचित उपायोंसे इसमें स्थिर रखना । यद्यपि इस कारिकामें सम्गगदर्शन और सम्यक चारित्र से । चलायमान होनेवाले विषयमें कहांगया है किंतु यही बात मानके विषयमें भी समझ लेनी चाहिये। ३–जिन्होंने धर्मको धारण करलिया है और उससे डिग भी नहीं रहे हैं उनके प्रति समानताका सूचक उचित सदव्यवहार तथा आवश्यकता पड़नेपर निष्काम, निश्छम कर्तव्यका पालन | ४-परलोगोंपर अपने धर्मका प्रभाव इस तरहका डाल देना कि जिससे वे हठाव जैन धर्मकी महत्वाको स्वीकार करने के लिये बाध्य होजाय । ___ यपि इन चारों ही कर्तव्यों या गुणों के विषय स्य और पर दोनों ही माने गये है। मतलब यह कि इन गुणों का पालन स्वयं भी करना चाहिये और दूसरों के प्रति भी। और ठीक भी है जो स्वयं ही उन गुणोंसे रिक्त है वह दूसरों के प्रति भी उस गुण का उपयोग किस तरह कर सकता है । फिर भी यहां पर आचार्य ने जो वर्णन किया है उससे मालूम होता है कि यहां पर पर की अपेवा ही मुख्य है। ___ऊपर जिन चार कर्तव्य विषयक गुणोंका दिग्दर्शन किया गया है और जिनको कि उत्पत्ति स्थिति पद्धि तथा रचाके नाम से भी कहा जा सकता है उनमें से पहले गुणवा ऊपर उल्लेख किया जा चुका है । उसके बाद दूसरे गुणका भी कार्य बताना क्रमानुसार आवश्यक हो जाता है। यही कारण है कि उपग्रहन के बाद स्थितीकरण का वर्णन किया गया है । क्यों कि ये चारोंही गुलों का कार्य क्रमभावी है। पहले का विषय धर्मरहित सदोष अवस्था या तद्वान् व्यक्ति है। इसरं का. विषय धर्मसहित किंतु शिथिल अवस्था है। तीसरेका विषय अपने ही समान परन्तु अडिग अकस्था है। चौथेका विषय इतना हड है कि उसका प्रभाव दूसरे विरोधियों पर भी पडता है। उनमें भी वैसा होनेकी भावना अथवा रुचि पैदा होती है। यही कारण है कि पहली भवस्था की
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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