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________________ ... बद्रिका टीका सोलहया श्लोक पष्टिसे उपगृहन अंगका वर्णन करने के बाद उसके बादकी दूसरी अवस्था अथवा उस अवस्थावाले व्यक्तियों के प्रति सम्यग्दृष्टि के कर्तव्यका वर्णन करके यह स्पष्ट कर दिया जाय कि जो मधर्मा के प्रति ऐसी अवस्था में इस तरह से प्रवृत्त होते हैं, समझना चाहिये कि उनका सभ्यग्दर्शन सांगीपांग पूर्ण है । यह स्पष्ट करना ही इस कारिका के कथन का प्रयोजन है। शब्दोंका सामान्य-विशेष आई..... दर्शन शब्दका अर्थ सम्यग्दर्शन- सम्यक्त्व---श्रद्धान आदि है। सकपाय तथा अल्पज्ञानी जीव बलवान विरुद्ध निमित्त को पाकर श्रद्वासे डिग सकता है। यही वात चारित्र के विषय में समझनी चाहिये । 'चारित्र' से मतलब यहां पर कमग्रहण में कारणभूत क्रियाओंकी भले प्रकार की गई निवृत्ति से है । फषाय अथवा अज्ञान के कारण दोनों विषयोंसे जीव विचलित हो सक्ता है । ___ वा अपि'-शब्दोंका अर्थ 'अथवा' और 'भी' है। वा शब्द विकल्पयाची है । अर्थात सम्पकदर्शन से अथवा चारित्र से । इस सरह विकल्प 'वा' शब्दका प्रतोग करने के बाद फिर अपि शब्द को आवश्यकता नहीं रह जाती है। अतएव इससे झापन सिद्ध और भी कोई विशिष्ट अर्थ है ऐसा सूचित होता है। ____ ऊपर मोदमाग रूप धर्म तीन भागों में विभक्त किया है। उसमें से सम्यग्दशन और मम्यक चारित्र का उल्लेख तो इस कारिका में सष्टतया दर्शन और चारित्र शन्द के द्वारा कर दिया गया है । परन्तु सम्यग्ज्ञानका उल्लेख शब्दक नहीं किया है। मालूम होता है उसीको मूवित करने के लिए यहां अपि शब्द का प्रयोग है । अथवा चलायमानता के विविध प्रकार इस से सूचित होते हैं। 'चलता' से मतलव इतना ही नहीं है कि जो वर्तमान में डिग रहा है, किंतु भूतकाल में जो डिम चुका है अथवा भविष्यत में जो डिगनेवाला है उसका भी इससे ग्रहण कर लेना चाहिये। धर्मवन्सल'-वत्स-बच्चे में प्रीति रखनेवाल को वत्सल कहत है। जिस तरह गा अपने चच्ने में असाधारण स्नेह रखती है यहां तक कि उसके लिए वह अपने प्राणों की भी परवाह न करके सिंह का भी सामना करने को उद्यत रहा करती है । उसी तरह धर्म में जो स्नहरणं भाव रखनेवाले है. उनको कहते हैं धर्मवत्मल । 'प्रत्यवस्थापन' का आशय फिरसे उसी रूपमें स्थपित कर देने से है। प्रात्र' उसको कहते हैं जो प्रकर्षरूप से और प्रत्येक पहलूर से विषयको स्वयं समझता है और दूसरोंकोभी समझा सकता है। स्थित होकर भी जो अस्थित हो गया है उसको फिर स्थित करना ही स्थितीकरण है। १-२-प्रकर्षसया, श्रा-समन्तात् , जानाति इति प्राज्ञः। ३-मस्थित:--अस्थिमः अस्थितः स्थितः क्रियते इति स्थितीकरणम् । स्थितिकरणमित्यपि पाठः यथा "युक्त्या स्थितिकरणमणि कार्गम्' ।। पु० सि.
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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