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________________ रलकरएक्श्रावकाचार वही पुमा करता है एवं कहा जाता हैं। इस तरहके पद तीन ही हैं और वे नियमसे सम्बग्हष्टि को ही प्राप्त हुआ करते हैं, फलतः वे नियमसे शिवपर्यायको भी प्राप्त होते हैं। प्रकृत कारिकामें प्रयुक्त "च" का मुख्यतया अर्थ अन्वाचयरूपमें ही करना उचित है, काडीक है, जैसा कि ऊपर किया गया है । परन्तु मोचपर्यायको अपेक्षाको गौण करके परस्पर तीनों पदोंकी रष्टिसे यदि विचार किया जाय तो उसका समुच्चय अर्थ भी हो सकता है। क्योंकि ये तीनों ही पद अपने अपने विषयमे अपनी-अपनी स्वतंत्र ही महधा रखते हैं। तीनों ही पदोंकी असाधारण महत्वा उनके विशेषणों द्वारा स्पष्ट हो जाती है, यहा कर दी गई है। ये तीनों ही पद अपने-अपने क्षेत्र में और अपने-अपने समयमें संख्याकी अपेक्षासे एक-एक ही रहा करते हैं। नीतिशास्त्र भी एकके ही शासनका समर्थन करता है। एक ही इन्द्र अपने जिस अधिकृत स्वर्ग पर-उसमें रहने वाले सभी देवों पर ही नहीं देवेन्द्रों पर भी शासन किया करता है उस स्वर्ग का और उन देवोंका प्रमाण अमेयर है । जिस सभाके द्वारा उसका शासन प्रवृत्त हुभा करता, अथवा जहां बैठकर वह शासन-आज्ञा प्रदान, विचार विनिमय, सूचना, उपदेश आदि किया करता है उसकी महिमा भी अमेय है। ये सभाए सौधर्मेन्द्रादिकी सुधर्मा३ आदि नामोसे प्रसिद्ध हैं। तथा उनकी जो अभ्यन्तरपरिषत् और बाझ परिषत् हैं उनकी भी महिमा अमेय ही है। केवल इसीलिये नहीं कि उनका वैभव अतुल्य एवं अपरिमित है किन्तु इसलिये भी कि जिन पर यह शासन करवा है वे अप्रमाण-असंख्येय हैं। पक्रवर्ती के लिये भी यही बात है । परखण्ड भूमिके शासनमें उसका कोई प्रतिद्वन्दी नहीं रहा करता । वह अकेला ही राजेन्द्रोंके द्वारा समस्त प्रजाका एकछत्र पालन किया और कराया करता है। उसकी सभाका महत्त्व भी अपरिमित ही है । जिसका कि नाम दिक्स्वस्तिका है। जो कि १६ हार गणवद्ध देवों, सेनापति, मंत्री आदि हजारों सेवकों तथा ३२ हजार मुटबद्ध भायं नरेन्द्रों, १८ हजार कर्मभूमिज म्लेच्छ राजाओं, एवं विद्याधर नरेशों आदिसे व्याप्त रहा करती है। जहां पर बैठ कर वह प्रजाका न्यायपूर्वक पालन करनेके लिये राजाओंको उपदेश और माझा प्रदान किया करता तथा न्यायका भङ्ग करनेवालोंको दण्ड विधान एवं उत्तम कार्य करने वालोंपर विविध प्रकारसे अनुग्रह प्रदर्शित किया करता है, जिसके कि निगाह अनाहका प्रभाव समस्त पसरह भारतकी प्रजाके थर्म अर्थ काम यश मोक्ष पर पड़ा करता है, उसकी इस समामें दौवारिक द्वारा उसकी स्वीकृति प्राप्त किये बिना कोई भी अच्छेसे अच्छे भरेष मी प्रदेश नहीं पा सकते और उन्हें मुककर नमस्कार करना पड़ता है। १-बिनपति बहुपति पतितपति पत्नीपति पति बाल, नरपुर की तो बात क्या मुरपुर होय उजार। २-खो पटसरगम वन्य प्रमाणानुगम सूत्र ६५ मादि । ३-इनके नाम बागममें देखने चाहिये।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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