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चन्द्रिका टोका इकतालीसा श्लोक विचारके अवसरपर भी समझना चाहिए कि यों तो अपने शुद्ध गुणधर्मोंकी अपेक्षा संसारसे मुक्त होजानेवालों में कोई अन्तर नहीं है—सामान्यतया सब एक रूप ही हैं। फिरमी उनमें पूर्वपर्यायके भाश्रयसे भेद भी पाया जाता है मतलब यह कि सम्यग्दर्शनके निमिसले जो संसार में रहते हुए छह परमानशा लाभ हुअा करता है उनकी गणेना मातवें परमस्थान में भी भेद माना या कहा जा सकता है। क्योंकि सम्पग्दर्शन निमित्तसे शिवपर्यापको जो जीव प्राप्त किया करता है उसमें पहले तीन पद----सज्जातित्व सद्गृहस्थता और पारिवाज्य तो आवश्यक निमित है; किन्तु अन्तिम तीन पद-सुरेन्द्रना परमसाम्राज्य--चक्रवर्तित्व और आर्हन्त्य अर्थात् तीर्थकरत्व ये आवश्यक निमित्त नहीं हैं। इनके बिना भी कोई भी सम्जाति सद्गृहस्थ सभ्यग्दृष्टि जीव दीक्षा धारण करके शिव पर्यायको प्राप्त करसकता है। अतएच कहा जा सकता है कि कोई तो सुरेन्द्रताको न पाकर और कोई उसको प्राप्त करके सिद्ध हुए हैं, इसी प्रकार कोई चक्रवर्तीका पद पाकर तो कोई उसके बिना भी मक्त हुए हैं. तथा काई वीर्थकर पदसे और कोई अतीर्थकर पदस ही निर्माणको गये हैं । अतः इन तीनों पदाँके अथवा इनमें से किसी भी पदके बिना भी शवपर्याय प्राप्त हो सकती हैं। इसीलिय अन्धा चय अर्थमें पाया हा"" तीनों पदोंकी गौण वाकी प्रकट करता है । यद्यपि सामान्य रूपसे तो सभी सांसारिक अभ्युदय मोधकी अचा आनुङ्गिक ही हैं फिर भी कारिकामें उल्लिखित सुरेन्द्रवादि सीन पदोंकी तरह प्रथम तीन परमस्थान अनावश्यक नहीं है, कारिका नं. ३६ में बताये गये मजातिवादिता मोक्षकी प्राप्तिमें शायन होनेके कारण सर्वथा आवश्यक है सुरेन्द्रता आदिक विषयमें यह बात नहीं है इसीलिये भालुम होता है कि अन्वाचय अर्थकी प्रधानताके कारण "" के द्वारा कारिकोक्त सुरेन्द्रता आदि तीन पदोंकी ही वास्तव में गौणता बताई गई है।
यह तीन पदोंकी गोगना भी मोनकी ही अपेक्षासे हैं, न कि परस्परको अथवा उनके कार्यविशेषोंकी अपेक्षासे । यह ठीक है कि सामान्यतया तीनों ही पद कर्माधीन होनेसे परतंत्र मश्वर तथा अनेक प्रकार के दुम्कोले भी आकान रहनेवाले हैं और इसीलिये शिवपर्यायकी अपेक्षा सर्वथा हेग हैं। तथापि सम्यग्दर्शन नहचारी पुण्य विशेषके फल होनेके कारण सातिशय एवं संसारमें सर्वाधिक सम्मान्य है। यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि गौणरूपमें कहेगये भी ये तीनों पद जो कि सुरेन्द्र राजेन्द्र और धर्मेन्द्र इस तरह जिस एक इन्द्र शब्दके ही द्वारा कहे गये बहान्द्र शब्द परमैश्वर्षका मानक होनेसे शासनके अधिकारकी योग्यताको मुख्यतया प्रकट करता है। क्योकि ऐश्वर्यमें आज्ञाकी ही प्रधानता रहा करती है, न कि वैभव की। पचपि इतका भय भी अधिक रहा करता है फिर भी ऐश्वर्यमें उसकी अपेक्षा नहीं है । किसी व्यक्ति का वैभव कम हो या ज्यादा परन्तु जिसकी याज्ञा प्रवृत्त हुआ करती है, वास्तवमें शासक इन्द्र