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________________ ४०८ रानकवकाचार शिवभक्तिः– जयन्ति कर्मा, भक्तिर्यस्य स अर्थात् सम्यग्दष्टिः । द्यपि यह शब्द सामान्यतया सम्यग्दर्शनको ही सूचित करता है फिर भी जहांतक चारों ही पदके साथ सम्यग्दर्शनके कार्यकारणभावका विशेष रूपसे विचार एवं सम्बन्ध है नचत् कार्यके कार की अपेक्षा इस शब्दके चार प्रकारके अर्थं करना ही उचित एवं संगत प्रतीत होता है। जैसा कि पहले बताया गया है। सुरेन्द्रता के लिये अभिषेक पूजा आदि, चक्रवर्तित्व के लिये वैपावृत्य प्रभृति तपश्चरण, तीर्थंकरनेके लिये अपायवित्रय धनध्यान अथवा तीर्थकुल माना और निर्वाण के लिये शुद्ध आत्मस्वरूपमें लीनता अर्थ करना अधिक संगत होता है । उपैति क्रियापदका अर्थ स्पष्ट है। भव्य अर्थ होता है मचितु योग्यः । यह एक पाश्रित स्वभावका चोक सापेन शब्द है। आगे होने वाली सिद्ध पर्यायकी योग्यता मात्र को यह शब्द प्रकट करतार हैं। जिनमें यह योग्यता पाई जाती है उन्ही को कहते हैं भव्य । यद्यपि इस योग्यताका बोधक पूथ शब्द "व्यसिद्विक" ही आग में पाया जाता है । फिर भी यहां उसके एक देश भव्य शब्द द्वारा वही अर्थ सूचित किया गया हूँ । अनादि कालस जिन जीवो यह योग्यता पाइ जाती हैं वे सभी भव्य हैं फिर भी जिनके भव्य भावका विपाक हो जाता है उनके अन्य निभित मिलने पर सम्यग्दर्शन भी प्रकाशमान होजाया करता है। और उसी जीवको अपने पुरुषार्थ के बलपर अन्य निमित्तोंके सापेक्ष जब अपने हा शुद्ध रूपाय पूणरामा लानता- हर प्राप्त दाता है तब वह का भी अति कर लिया करता है। उस अवस्थाम मंत्रयत्व द्धिप्रत करने की योग्यता काकाई प्रश्न दा नहीं रहता | यहां कारण है कि निशा उनका अभाव बताया गया है । यहाँ पर भव्य शब्दका उल्लेख करक श्रमव्यांका निराकरण करते हुए बताया गया है कि संसारी जी जो मध्य हैं वही जिनेन्द्र भगवान्मं अथवा जिन पर्यापम यहा जेनन्द्री मुद्रा में वास्तविक भक्ति रखनेवाले-तम्यग्दृष्टि होकर शिपयको प्राप्त हुआ करत हैं । वात्पय-यह कि ऊपर सम्मान के निमिव। प्राप्त होनेवाली जिस संसारातीत शिवपर्याय का वर्णन किया गया है वह संसार सम्बन्धा समा विकन्या और उनके कारणभूत द्रव्य क्षेत्र काल नावसे शून्य हैं। अतएव अमंद अर्थात् परसम्पर्क सर्वथा रहित रहने के कारण एक रूप है। अपने शुद्ध ज्ञानादि गुणों के अखण्ड पिराडकर में विद्यमान रहते हुए भी यह परसम्बन्वनिमिच नात जाने या कहे जानेवाले सभा भेदोस एकान्ततः विमुक्त है | परन्तु ऐसा होते हुए भी आगममें भूतपूत्र प्रज्ञापन नयको अपदान उसमें भी अनक प्रकारसे पायें जानेवाले मंद व्यवहारका उल्लेख पाया जाता है । उसी प्रकार यहां इस कारिकाके आशय के & -- --द्वषयस्थान । २प्रवितु योग्यां मन्यः । -- सत् प्ररुणा सू० नं० १४१ से १४६ । ४--मव्यभावावपाकाद्वा आवः सम्यक्त्वभरनुत || --सीसि सपत्ता ।। गा० जा० ॥६--मिकाभित्वानां च । र भावो जीवो
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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