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________________ रत्नकरएडभावकाचार पडता जाता है और उसकी विशुद्धि भी उच्चरोत्तर बढती ही जाती है। अतएव उसके तीनों ही योगोंको प्रवृत्ति ऐसे किसी भी विषय में न तो होती है और न हो सकती है,जो कि मिध्यान्व अथवा उसके सहचारी भावों के अनुकूल हो। ध्यान रहे सम्यक्त्व के हो जानेपर जीवका चौथा गुणस्थान तो होता ही है अतएव यह कहने की आवश्यकता नहीं रहती कि चतुर्थादि गुणस्थानोंके होनेपर ज्यों २ मोह में अंतर पडता जाता है-जितने २ अंशोंमें उसके उदय का अभाव होता जाता है त्यों २ उतने २ ही अंशमें योग में भी अन्तर का पड़ना-मलिनता छूटकर विशुद्धि का बढते जाना भी स्वाभाविक है। यही कारण है कि चतुर्थ गुणस्थानके होनेपर उस जीवके ४१ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं हुआ करता। मतलव यह कि उसका मन बचन काय एसे किसी भी कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकता, न होता ही है जो कि विवचित ४१ कर्म प्रकृतियोंमें से किसी के भी चन्यका कारण हो । फलतः वह अवर्णवाद नहीं करता, क्योंकि उसके मिथ्यात्वका बन्ध नही होता; वह वेश्यासेवन परस्त्रीगमन आदि व्यभिचार का सेवन नहीं करता क्यों कि उसके नपुंसक या स्त्री वेद का बन्ध नहीं होता यह दूसरेकी निंदा व अपनी प्रशंसा परशा गुणावादन दोगलापन आदि नहीं किया करता क्योंकि उसके नीच गोत्र का बन्ध नहीं होता, वह मय मांस मधुका सेवन नहीं करता, नसीम भारम्भ या परिग्रहके लिए अन्यायरूप प्रवृत्ति ही करता है क्योंकि उसके नरक और तिर्यम् श्रायुका बन्ध नहीं होता । अस्तु इसी तरह समस्त ५१ कर्मप्रकृतियोंके विषयमें समझलेना चाहिये। मतलब यह कि चतुर्थगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि असंयत होता है उसके न तो बस स्थावर जीवोंकी हिंसाका ही त्याग होता है और न वह इन्द्रियों के विषय से ही विरत रहा करतार है। अतएव कदाचित कोई यह समझे कि उसकी प्रवृत्ति अनर्गल रहा करती है। सब कुछ करते हुए भी-मद्यमांसादि का भक्षण, वेश्या व्यसनादिका सेवन, हिंसा चोरी आदि अन्यायोंको करते हुए भी वह सम्यग्दृष्टि ही बना रहता है तो यह ठीक नहीं है। प्रथया कोई यह समझे कि सम्यग्दृष्टि तो अबन्ध हुआ करता है-उसके कर्मका बन्ध होताही नहीं३ तो इसतरहका समझना सर्वथा मिथ्या है और सिद्धांतके विरुद्ध है। ___ असंयत कहनेका आशय इतना ही है कि उसके पांचवे गुणस्थान के समान निरतिचार मनु ब्रतादिक नहीं हुआ करते । और अबन्ध कहनेका श्राशय इतनाही है कि संसारकी कारणभूत ५-देखो गोमट्टमार में वन्ध व्युच्छिति प्रकरण तथा तत्स्वार्थसार राजवार्तिक माविमें तत् कर्मों के बन्धमें कारण बताई गई क्रियाओंका उल्लेख और तत्वाय सूत्रके केवलीश्रुतसंघधर्मदेवाववादो दर्शन मोहस्य । परात्मनिदाप्रशंसे सदसद गुणाच्छादनोभावने च नीचंर्गोत्रस्य "की म्पादया भादि । २-यो इन्धियेसु विरदो जो जीने थावरे तसे वापी । जो साहदि जिणुत्त सम्माइट्ठी अविरको सो । मो० जोक। ३-जैसा कि शुद्ध निश्चयकान्तावलम्बी कहा करते हैं। तथा इसके लिये देखो समयसार गान०१६ की बीमाएं बादि।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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