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पद्रिका टीका अठारहवा लीक मान हैं उन्हें भी उससे यथाशक्य वचाने का प्रयत्न किया करता है । किंतु ध्यान रहे प्रयत्न करने पर भी सफलता नहीं मिलती तो उन तीव्र मोही जीवापर वह द्वेष नहीं करता । यदि कापथादिम राग नहीं है तो उसके निवारणके प्रयत्नमें असफलता मिलनेपर उसे दूरी भी नहीं होता। यह रागद्वपका प्रभाव ही उसकी उपेक्षा है। वह परम करुणाधान् होनेके कारण अपायविचय या उपायविचय नामक थमध्यानका पालन किया करता है। जो कि प्रान्माको विशुद्ध बनानेवाला है । अथवा निमिस' मिलनेपर लोकोतर पुण्य कर्म तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका भी कारण होजाया करता है।
दूसरी बात यह है कि दर्शनमोहके उदयका प्रभाव जिस तरह उपयोग पर पड़ता है उसी तरह चारित्र पर भी अवश्य पडता है। क्योंकि दर्शनमोहके उदयका अभाव हुए विना चारित्रमोहक उदयका प्रभाव नहीं हुआ करता । चारित्रका सम्बन्ध चारित्रमोहके योपशमादिसे तो है ही साथ ही वीर्यगुणसे भी हैं । वीर्यगुण पुद्गलविषाकी शरीर नामकर्मके उदयसे प्राप्त मनोवर्गणा वचनवर्गणा तथा आहारवर्गणाओंके निमित्तको पाकर जो प्रवृत्ति करता है उसीको अगममें योग नामसे कहा है । निमित्तभेद के अनुसार उसीके मनोयोग वचनयोग और काययोग इस तरह तीन भेद हैं। इस तरह विचार करनेपर मालुम होगा कि दर्शनमोहके उपशममादिका वीर्यगुणकं परियमनरूप योगोंपर भी प्रभाव अवश्य पड़ता है। फलतः सम्यग्दृष्टि के मन वचन कायकी प्रवृत्ति कापथ और कापस्थांके विषयमें नहीं हुआ करती । यही कारण है कि सम्यग्दर्शनके नौ अमन दृष्टिके स्वरूपका वर्णन करते हुए आचार्याने कापथ और कापथस्थोंके विषयमें असम्मति अनुत्कीति एवं असंपृक्तिका निर्देश किया है । जिसका आशय यही है कि सम्यकदृष्टि जीव मिथ्यावादिको न अच्छा समझता है न उसकी प्रशंसा करता है और न उनका सेवन हो करता है। किंतु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि वह मिथ्याष्टियोंसे द्वष करता है जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है । वह तो परम करुणाका धारक हुआ करता है और इसीलिये वह तो उनके भी हितके लिये ही प्रवृत्ति किया करता है। प्रभावना अंगका प्रयोजन उनको इस लोक तथा परलोकमें वास्तविक हितरूप मार्गमें प्रवृत्त करना ही है।
तीसरी बात यह है कि गुणस्थानोंकी उत्पत्ति के कारण मोह और योग हैं। जैसा कि ऊपर के कथन से स्पष्ट हो जाता है । मोह-दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय के उदय उपचन लय क्षयोपशम और तज्जन्य परिणाम तथा उनसे प्रभावित वीर्य के परिणामरूप योगों के द्वारा गुसस्थानों का उद्भव हुआ करता है । वीर्यगुण की प्रकृत में दो अवस्थाए विवचित हैं ।पायोपशमिक और क्षायिक । बारहवे गुणस्थान तक चायोपशमिक और उससे ऊपर क्षायिक अवस्था है जैसे २ मोह के उदयादिजनित भावों में अन्तर पडता जाता है वैसे २ विशुद्धिके बढ़ते जानेसे योगरूपमें काम करनेवाले वीर्यगुणके बायोपशमिक भावोंमें मी विशुद्धताका अन्तर अवश्यही १-तित्थयरबंधपारभया जस कंवलिदुर्गत गोम० सा० । अथवा आदिपुराण तीर्थकस्वभावना । याअनगारधर्मामृत अयोमार्गानभिज्ञानित्यादि ।