SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चंद्रिका टीका वारहवाँ श्रीक fav · कि केवल पुण्य कर्मोका ही उदय पाया जाय। घातिकर्म सब पाप रूप ही हैं उनके उदयसे रहित कोई भी जीब नहीं है चार पातिकमोंमेंसे एक मोहनीयका सर्वथा अभाव होजानेपर यह जीवात्मा उसी भवमें परमात्मा बन जाता है और सिद्धावस्थाको प्राप्त करलेता है किंतु जबतक उसका निर्मूल विच्छेद नहीं होता तबतक तो वह सम्पूर्ण धातिकर्मो के उदयसे युक्त ही रहा करता है. अतएव ऐसा कोई भी जीव संसार में नहीं है जिसके कि केवल पुरुष प्रकृतियोंका ही उदय पाया जाय ! संजीवके पुण्य कर्मो का उदय पाप कर्मोंके उदयसे मिश्रित ही रहा करता है ऐसी अवस्था में शुद्ध आत्मसुख के रसका अमिलापी सम्यग्दृष्टि बालू रेतसे मिले हुए या विषमिश्रित हलवा समान पापोदयजनित दुःखांसे मिश्रित पुरायजन्य ऐन्द्रिय सुखको किस तरह सन्द कर सकता है ? नहीं कर सकता । इसके सिवाय कदाचित् ऐसा भी होता है कि पुण्य के उदयसे जीवको भोगोपभोग की यथेष्ट सामग्री प्राप्त है परन्तु अन्तराय कर्म के उदयवश वह उनको भोगने में असमर्थ ही रहा करता है 1 क्योंकि भोग्य सामग्रीका प्राप्त होना और भोगनेकी शक्तिका प्राप्त होना ये दोनों ही भिन्न २ विषय हैं और इसीलिये अन्तरंग में पुण्य कर्म के उदय एवं अन्तराय कर्म के क्षयोपशम आदि मिअर कारणों की अपेक्षा रखते हैं । अत एव दोनोंका एकत्र पापा जाना सुलभ नहीं हैं । अतः सांसारिक सुख अन्तराय कर्म के उदय यादि के कारण दुःखमिश्रित - सविघ्न ही रहा करता है। मेडिया के साथ बंधाया बकरीका बच्चा सुस्वादु और मुशेषक चारा पाकर भी हृष्ट पुष्ट नहीं रह सकता । इसीप्रकार सान्तराय सुख सामग्री को पाकर भी कोई भी अन्तरात्मा हर्ष संतोष एवं प्रमताको प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिये भी सम्यग्दृष्टि को इस तरह के सुख में थास्था नहीं रहा करती । चौथा विशेषण "पापबीजे" हैं। व्याकरणके षष्ठीतत्पुरुष और बहुव्रीही समासके अनुसार इस शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं। - पापका बीज श्रथवा पाप है वीज जिसका । पहले अर्थ के अनुसार पुण्योदयसे प्राप्त हुआ भी सांसारिक सुख -- ऐन्द्रिय विषय वैभव ऐश्वर्य यादि पापके बीज हैं उनके सेवनसे भोगोपभोग द्वारा अथवा उनकी आकांक्षा मात्र से भी दूसरे नवीन पाकका च होता है और इसतरहसे फिर उसकी सन्तति चलीजानी है। यद्यपि नारायणका पद सनिदान तपश्चरण के द्वारा संचित पुण्य के उदयसे ही प्राप्त हुआ करता है फिर भी नियम से उनको नरक में जाना पडता २ है । फलतः विचार करने पर अवश्य ही वह ऐश्वर्य साम्राज्य एवं भोगोपभोग पापका ही बीज है जिससे कि अनेक दुःखरूप भवोंमें पुनः भ्रमण करना पड़ता है। आचार्योंने कहा है कि "अन्यथा पुनर्नरकाय राज्यम् १३ । राज्यको पाकर यदि उसका ठीक २ १--" भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिरस्त्रिय: । विभषी दानशांतश्च स्वयं धर्मकृतेः फलमू" यशस्तिलक......... कोई २ चतुर्थ चरणकी जगह पर नाल्पस्य तपसः फलम् ऐसा भी पाठ बोलते हैं। • · २ - नारायण प्रतिनारायण नारद रुद्रकी अधोगति ही मानी है। ३ - नीतिवाक्यामृत |
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy