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रस्नकरएसावकाचार सुख कर्माधीन है वह वास्तवमें आत्माका नहीं है और इसीलिये उसमें सम्यग्दृष्टिकी भास्था नहीं रहा करती और न रह सकती है । यदि उसमें किसीकी आस्था रहती है या पाई जाती है तो वह या तो मिथ्यादृष्टि है या उसका सम्यक्त्व अंगहीन लूला लंगडा है । मोक्षमार्गके शत्रु मोहराज श्रादिके आधीन रहनेवाला उनका सेवक, मुक्तिरमारानी या उसके परिकरकी भी कपा एवं अनुयायबुद्धिका पात्र किस तरह बन सकता है ? नहीं बन सकता । अस्तु मुमुक्षुकंलिये यह मुख हेय ही है जो कि स्वाधीन नहीं है । और क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव नियमसे मुमुक्षु हुमा करता है अतएव उसको कर्माधीन सुखमें आस्था नहीं रहा करती।
सान्त शब्दका अर्थ है अन्तसहित, विनाशीक, नश्वर श्रादि । अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव को उस सुखमें भी प्रास्था नहीं रहा करती जो कि स्थिर रहने वाला नहीं है क्षणभंगर पसमें किमी भी स्थिरबुद्धिको आस्था हो मी किस तरह सकती हैं । जो सुख कर्माधीन है वह अवश्य ही अन्तसहित होगा | क्योकि सभी कर्मों की स्थिति नियत है। कर्मीका जब बंध होता है तब निय से उसमें प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेश इस तरह चारों ही प्रकारका बंध हुआ करता है । अतएव कर्मोकी जो उत्कृष्ट स्थिति बताई हैं उससे अधिक कालतक तो वह कर्म टिककर रह ही नहीं सकता । फलतः उसके उदयसे माना जानेवाला मुख स्वभावतः अन्तसहित ही सिद्ध होता है । इसके सिवाय कितने ही काँका उदय अथवा फल गत्यधीन यद्वा पर्यायनिमित्तक हुआ करता है । जो कर्म मनुष्यगतिमें ही अपना फल प्रदान कर सकता है अन्यगतियों में नहीं, उसका फल या तजन्य सुख स्वभावसे मनुष्य पर्याय तक ही रह सकता है न कि अधिक। क्योंकि वहांपर अन्यत्र उस फलको भोगनेक लिये आवश्यक निमितरूप बाह्यसामिग्री ही नहीं पाई जाती । इसलिये भी कर्मपरवश गुख नियमसे सान्त ही है। अनन्त सुख तो स्वभावतः कर्मातीत अवस्थामें ही पाया जा सकता है, फलतः सम्यग्दृष्टि जीवकी जिसका कि लक्ष्य अपने स्थिर शान्त सुख स्यभावपर ही लगा हुआ है क्षणभंगुरसुखमें श्रास्था किस तरह हो सकती है ? नहीं हो सकती । कोई भी विवेकी स्थिर सुख शान्तिकेलिये मेषकी छाया समान अस्थिर कारणको पसन्द नहीं कर सकता।
दुखैरन्तरितोदये--जिसका उदय--प्रफटता-उद्भुति दुःखोंसे अन्तरित विभित अथवा मिश्रित है उस सुखको दुखोंसे अन्तरितोदय समझना चाहिये । काँक अधीन होकर भी और अन्तसहित होनेपर भी ऐसा कोई भी सांसारिक सुख नहीं है जो कि अनेक दुतोंसे भी युक्त न हो । जगत में पाये जानेवाले सुखोंके प्रति सम्यग्दृष्टि की अनास्थाका यह भी एक बहुत कडा कारण है कि यह वारतवमें शुद्ध सुख नहीं है । क्योंकि किसी भी जीवके यदि उस सुखके कारणभूत सावधिक भी एक या अनेक पुण्य काँका उदय पाया जाता है तो उसके साथ ही अनकानक पाप कर्मों का उदय भी लगा ही हुआ है संसारमें ऐसा कोई भी जीन नहीं है जिसके १-माय ज्ञायोय होनेमाला ध ।
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