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चौद्रका टीका बारहवां शोक शमें स्थित रहनेवाले पुद्रल स्कन्ध हैं । ये आत्माके गुण भी नहीं हैं। यदि ऐसा होता तो छूट नहीं सकते थे और न आत्मा के पाधक अथवा विररिणमनमें कारण ही हो सकते थे ! अपना ही स्वरूप अपना ही बाधक या घातक हो यह असंभव है । अत एव कर्मका अर्थ वही लेना चाहिये जो कि ऊपर बताया गया है और जैसा कि जैनागममें प्रसिद्ध है।
'परवश' का अर्थ परतन्त्र या पराधीन है। जिसकी उत्पत्ति स्थिति वृद्धि आदि सभी कुछ कोंके अधीन है--कर्मों पर निर्भर है वह अवश्य ही कर्म-परवश है। संसारमें जो सुखशब्दसे कहा या माना जाता है वह सभी कर्माधीन है । यद्यपि मुख सब्द से चार अर्थ लिये जाते हैं- विषय वेदनाका अभाव विपाक और मोक्ष; जैसा कि पहले लिखा जा चुका है फिर भी सामान्यतया यदि स्वाधीन और पराधीन इन दो भागोंमें विभक्त किया जाय तो पहले तीन अर्थ पराधीन और केवल मोक्ष सुख ही एक स्वाधीन सुख गिना जा सकता है । क्योंकि पहले तीनोंडी अर्थी का सम्बन्ध कर्मापेक्ष है और एक मोक्षमुख ही ऐसा है जो कि कर्मों के क्षयके सिवाय अन्य किसी भी प्रकार से कर्मोकी अपेक्षा नहीं रखता।
कर्मों के अनेक तरहसे भेद कियेगये हैं। उनमें पुण्य और पाप ये दो विमाग भी हैं। जिन का फल अभीष्ट है, संसारी जीव जिन कर्मों को या जिन के फल को चाहता है ये सब पुण्य कर्म कहे और माने जाते हैं। इसके विरुद्ध बाकी बचे जितने भी कर्म हैं वे सब पापकर्म हैं । जिनका कि फल अनिष्ट है अथवा अभीष्ट नहीं है । कर्मों की कुल संख्या १४८ है । परन्तु उनमेंसे पुण्य कर्मों की संख्या ६८ और पाप कर्मों की १०० वताई है । इस भेदका कारण भी कर्मो के फलमें इष्टा. निष्टभावका पाया जाना ही है । क्योंकि नाम कर्मकी २०--प्रकृतियों का फल किसी को इष्ट और किसी को अनिष्ट होता है यात एव उनको दोनों तरफ गिनलिया है यही कारण है कि दोनों पुराप पाप की मिलाकर १६% संख्या हो जाती है ।
तत्त्वतः विचार करनेपर सभी कर्म आत्माके विरोधी हैं । उसके द्रव्य गुण पाप स्वभाव आदिका पात करनेवाले होने के कारण एक ही जातिय हैं उनमें पुराग पापका कोई विभाग नहीं है और न इस दृष्टिसे विभाग माना ही है और न हो ही सकता है। किंतु व्यवहारतः उस भेदको मान्य किया है और वह उचित सत्य समीचीन तथा अभीष्ट भी है फिर भी यहाँपर यह बात अवश्य ध्यानमें रखनी चाहिये कि जिस संसार सुखके यहाँपर चार विशेषण देकर चार तरहसे उसकी उपेक्षणीयता या हेपताका निर्देश प्राचार्य कर रहे हैं वह सुख ऊपर बताईगई पुण्य प्रकृतियोंके ही आधीन है ऐसा नियम नहीं है। क्योंकि कोई २ मुख ऐसा भी है जो कि पाप प्रकृतियोंक उदयकी भी अपेक्षा रखता है जैसे कि खीवेद, पुवेद, हास्य, रति, निद्रा आदि। इसपरसं यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पुण्य पापके विभागमें कारणान्तरकी भी अपेक्षा है जैसा कि आगे चलकर स्पष्ट किया जायगा। फिर भी यह पात निश्चत ही है कि जो ....३-परतन्त्रः पराधीनः परवाम् नावानपि ।।