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________________ क्योंकि "नहि कारणवैकल्यं कार्य साधयति" अर्थात् जबतक कारण पूर्ण नहीं है तबतक कार्य भी किस तरह सिद्ध हो सकता है ! नही दोसाता। बावको नया अल्पतया सम्यग्दृष्टिकी रुचि अपने शुद्धपदमें और जबतक वह सिद्ध नहीं होजाता तब तक उसके वास्तविक उपायके विषयमें ही रत रहा करती है। और जबतक वह ऐसी नहीं रहती तबतक न तो वह अभीष्ट सम्यग्दर्शन ही है और नहीं उससे वास्तविक सम्यग्दर्शनका फल ही हो सकता है। क्योंकि "ध्यातो गरुडबो.. घेन नहि हन्ति विषं वकः" । गलेको गरुड मानलेनेसे वह सर्पका विष दूर नहीं कर सकता। इस तरहका सम्यग्दर्शन अंगहीन है वह मुक्तिकन्याके अभीष्ट वरणमें कारण नहीं हो सकता इस वातको बतानेकेलिये ही निःशंकित अंगके बाद उसके दूसरे निःकांक्षित अंगका स्वरूप बताना भी आवश्यक है और इसीलिये प्राचार्यने इस कारिका का निर्माण किया है । क्योंकि ये प्रात्माकी संसार और मोक्ष ये दोनों अवस्थाएं परस्परमें विरुद्ध हैं। ये ३६ के अंककी तरह, माकाश पातालकी तरह, दिन रातकी तरह परस्परमें भिन्नर श्राकार भिन्नर दिशा और भित्रर ही स्वरूप रखती हैं। अतएव जो जीव एकमें रुचिमान है तो वह दूसरीसे कुछ न कुछ हीनरुचि या विरुद्ध रुचि अवश्य रहेगा फलतः संसारका रुचिमान वास्तव में मोक्ष और मोक्षमार्गका पूर्ण एवं यथार्थ रुचिमान् नहीं माना जा सकता और इसीलिये यह उसका यथाभीष्ट फल भी प्राप्त नहीं कर सकता । संसारके सुख में आस्था और उसके सर्वथा छूट जाने-परमनिर्वाणमें आस्था ये दोनो बातें एक साथ नहीं रह सकतीं । किसी कविने ठीक ही कहा है कि... दो मुख सुई न सीवे कन्या, दो मुख पन्थी चले न पन्था । त्यों दो काज न होई सयाने, विषयभोग अरु मोक्षपयाने ।। मतलब यह है कि जिस तरह मन्त्र आदि विद्या सिद्धिकेलिये निःशंकताकी आवश्यकता है उसी तरह संसारातीत अवस्था परमनिर्वाणको सिद्ध करनेकेलिये निःशंकताके साथ२ निःका-- बता की भी आवश्यकता है। यह बताना ही इस कारिकामा प्रयोजन है। शब्दोंका सामान्यविशेषार्थ-कर्म शब्दका अर्थ प्रसिद्ध है कि संसारी आत्मा के साथ लगे हुए वे पुल स्कन्ध जो कि उसकी योग परिणतिके निमित्त को पाकर आकृष्ट होते और जीवकी ही सकषायताके कारण उससे सर्वतः श्राबद्ध होकर उसीको स्वरूपसे च्युत करके भनेक प्रकारसे विपरिणत किया करते हैं। यहां पर कर्म से मतलब क्रिया आदि अथवा उस अदृष्ट४ से नहीं लेना चाहिये जो कि वैशेषिक दर्शन आदि में बतायागया है कि यह भत्माका एक गुण है। येतो श्रात्मासे बद्ध पुद्गलद्रव्य की पर्याय विशेष हैं | ये कि यारूप नही । किन्तु आत्मा के प्रत्येक प्रदे- "नांगहीनमलं हेतु दर्शनं जन्मसन्ततिम्' २० फ०।२-लौकिकसूति।। ३-उत्तेपणअषक्षेपण आदि वैशेषिकदर्शनकारोंके द्वारा मानीगई पांच प्रकारक्रियाएं । ४-शषिक दशेनमें अष्टको गुण माना है। और गुणों को द्रव्य से मिा तव स्वीकार किया है। साथ ही मुक्तावस्था में चुतियादि नवगुणोंका पच्छेद बताया है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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