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________________ चाद्रका टाका बारह्या साक प्रतीति चलायमान नहीं हुआ करती । यही सम्यग्दर्शनका सबस पहिला निःशंकनामा अंग है। इसका वर्णन करके अब क्रमानुसार दूसरे निःशंक अंगका वर्णन करते हैं। कर्मपरतशे सान्ते दुःखैान्तरितोदये । पापवीजे सुखनास्था श्रद्धानाकांक्षणा स्मृता ॥१२॥ अर्थ जो कमौके परवश हं, अन्तसहित हैं, जिसका उदय दुःखोंसे अन्तरित ई-घिरामा है मिश्रित है, एवं जो पाप वीज है जिसको शपकी संगलि पलगी मधला जिवार नीज पाप है पापसे उत्पन्न हुआ है ऐसे मुसमें अनास्था, यास्थाका न होना, न रहना, न पाया जाना श्रद्धाका-सम्यग्दर्शनका दूसरा निष्कांक्ष नास्का गुण है। प्रशोजन--आत्मद्रव्यको मूलमें दो अवस्थाएं है । एक अशुद्ध दूसरी शुद्ध । जब तक वह पुद्गलद्रव्यसे आबद्ध हैं तब तक अशुद्ध है उसकी जितनी अवान्तर अवस्थाएं होती है वे भी सब अशुद्ध ही होती है । इसीको संसार कहते हैं । यह दो तरहका हुआ करता है। अनाद्यनन्त और अनादिसान्त । कर्म बन्धनसे जो सर्वेशा रहित-मुक्त होजाते हैं वे शुद्ध हैं । उनकी जितनी अवान्तर अवस्थाएं होती है ये सब शुद्ध ही हुश्रा करती हैं। यह शुद्ध अवस्था साधनन्त है। जिनकी संसार अवस्था छूट कर शुद्ध अवस्था होगई है अथवा अवश्य ही होने वाली है उन केवलियों या सम्यग्दृष्टियोंकी संसार अवस्था अनादिसान्त कही जाती है। जर जिसका लक्ष्य अपनी शुद्ध अवस्थापर पहुँच जाता है तब वह उसीको प्राप्त करना चाहता है उसका ध्येय अपनी शुद्ध समीचीन अवस्था प्राप्त करना ही बन जाता है। अतएव उसको सम्यग्दृष्टि कहा गया है । इस दृष्टिकोणका ही नाम सम्यकदर्शन है । इसके होजानेपर जोर गुण या उस दृष्टि कोणमें असाधारमनाएं प्रकट होती है वे ही यहां बाठ अंगोंके नामसे बताये गये हैं। जिनसे परले निःशंकित अंगका वर्णन गत कारिकामें किया गया है । जिसका आशय यह है कि शुद्ध उसकी श्रद्धा बुद्धि जिनेन्द्रभगवान् द्वारा प्ररूपित आत्माकी अवस्था और उसके उपायके विषय में चलायमान नहीं हुआ करती । जिस तरह संशयरूप शान अप्रमाण है-समीचीन विषयका ही ग्राहक न होने के कारण उससे अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता उसी तरह संशयरूप श्रद्धार से भी अभीष्ट फल सिद्ध नहीं हो सकता। सम्यग्दर्शनके विषयमें यह बात समझलेनेके बाद कि यदि वह अपने विषयमें स्वरूपसे चलायमान है तो उससे अभिमत फल प्राप्त नही हो सकता; यह जानलेना भी आवश्यक है कि यदि वह अपने विषयसे विरुद्ध विषयमें श्रास्थारूप है तो उससे भी वह फल प्राप्त नहीं हो सकता । ऐसी अवस्थाकर रहते हुए उसको पूर्ण और वास्तविक समाग्दर्शन भी किस तरह कह सकते हैं। तथा उससे सम्यग्दर्शनका फल भी किस सरह प्राप्त हो सकता है ? नहीं होसकता । तत्ते माने रिपो स्ष्टे आदि । यशस्सिलक। २- शल्पति सांशयिकमपरेषाम् ।। साध | ३-भात्माकी शुद्ध अवस्थाके विपरीत संसाररूप अथवा कर्मोदय सहित भवस्था । --
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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