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ईजद
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
कारण बन जाता है, ये सब बातें भी इस कारिका के सम्बन्ध में अच्छी तरह विचार करने पर मालुम हो सकती हैं। श्रतएव यह कारिका अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रयोजनवती है। शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ -
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अमरासुरनरपतिभिः - इस पड़में आये हुए शब्दोंका अर्थ प्रसिद्ध है । यद्यपि अमर शब्दका अर्थ निरुक्ति के अनुसार 'न मरने वाला' होता है । परन्तु संसार में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो कि अपनी अपनी आयुःस्थिति समाप्त होने पर न मरता हो । आयुःस्थितिको पूर्णता ही मरण है । और आयुःस्थिति सभी संसारी जीवोंकी पूर्ण होती हैं और वे अवश्य मरते हैं । फिर भी इन विषयमें दो बातें ज्ञातव्य हैं। प्रथम तो यह कि कुछ जीव तो ऐसे हैं जो कि आयुः स्थिति पूर्ण हुए बिना नही मरते - नियमसे पूर्ण होने पर ही मरते हैं । और कुछ जीव ऐसे हैं जो इनके विपरीत योग्यता रखने वाले हैं। वे निमित्तविशेषके मिलने पर आयुःस्थितिले पूर्व भी मरणको प्राप्त हो सकते हैं। इनमेंसे पहले प्रकार के जीव अनपर्यायुष्क और दूसरे प्रकार के जीव पर्यायु कहे जाते हैं । दूसरी बात यह कि संसारी जीव दो तरहके हैं - एक चरमशरीरी - उसा भवसे मोक्षको जाने वाले, दूसरे घचरमशरीरी -- भवान्तरको धारण करनेवाले । ऊपर जो दो भेद कहे हैं वे अचरमशरीरियां की अपेक्षा से ही हैं। चरमशरीरियोंमें दो भेद नहीं हैं, वे सब नियमसे अनपत्ययुष्क ही हुआ करते हैं । फिर भी उनको वर्तमान आयुःस्थिति अवश्य ही पूर्ण हुआ करती है। अनएव वे भी अवश्य मरते हैं। सर्वथा अमर कोई भी संसारी सशरीर जीव नहीं है । हां, श्रनवययुष्क जीवोंको निरुक्त्यथके अनुसार कदाचित् अमर शब्द से कहा जा सकता है । परन्तु यहां पर यह भी विवक्षा नहीं है। यहां पर तो यह योगरूढ शब्द हैं । श्रतएव इसका प्रयोग रूढ अर्थात् देशोंकी चार निकायों में से ऊर्ध्वलोक में रहने वाले वैमानिक देवोंके लिये ही किया गया है। यद्यपि जिस तरह वैज्ञानिक देवों में यह अर्थ घटित होता है उसी प्रकार बाकी के सब देवोंमें भी घटित होता हैं परन्तु सब देवभेदोंमें उनके भी होनेके कारण वे वैमानिक देव भी सब पवयष्क ही हैं ।
सुर-वैमानिक देवोंसे भिन्न तीन निकायके देवों -- भवनदशमी व्यन्तर ज्योतिष्कोंको असुर कहा जाता है । लोकमें देवासुर संग्रामकी कथा प्रसिद्ध है अतएव लोगों में मान्यता है कि ये सुरोंके साथ युद्ध करते हैं उन पर शस्त्र आदिका प्रहार किया करते हैं। सो यह बात सर्वथा मिथ्या है | यह कथन देवोंका अद मात्र है। दर्शनमोहके बन्धका कारण है ।
१० सू० अ० २ ० ५३ में " चरमोत्तम देहाः " पाठ गया जाता है। किन्तु पूज्यपाद स्वामी सर्वार्थसिद्धमें कहते हैं कि ' चरमदेहा इति वा पाठ: " । तथा श्री अकलक देव राजवार्तिकमें कहते हैं कि "श्वरमदेहा इति केषांश्चित् पाठः"। तद्नुसार सभी चरमशरीरी तथैव अन्तकृत् केवली भी अनपवर्त्यायुष्क हो सिंद्ध होते हैं। इसी दृष्टि से यह लिखा गया है।
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बेलो त० सू० अ० ४ सूत्र नं० १० का राजवार्तिक नं० २ से ६ ॥