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________________ ३९० रलकर श्रावकाचार से स्पष्ट हो जायगा । और मालुम हो सकेगा कि ग्रन्थकाळ श्राचार्य स्वय सम्यग्दर्शनको गुरुयमंगल रूप मानकर भी, अन्य भी पर और अपर मंगलोंको सम्यग्दर्शनके फखरूपमें स्वीकार करते हैं। किन्तु प्रत कथनसे मालुम होता है कि ये सव इसलिये गौश है कि सम्पग्दर्शनमूलक हैं, उससे अन्यथानुपन हैं । यही कारण है कि "सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्नाः" की उक्तिके अनुसार यहां सम्यग्दर्शनको ही सर्वोत्कृष्ट श्रेयो रूप बताया गया है। अश्रेयश्च मिथ्यात्वमम अन्यत। यह नाक्य मम्मदर्शन के विषय में जो कुछ यहां कहागया है उससे सर्वथा प्रत्यनीकताको दिखाता है । जो इस बावको बताता है कि सम्यग्दर्शनका ठीक विरोधी भाव मिथ्यात्व है जो कि स्वयं अकन्यामरूप है और उसके जितने भी पर अपर फल है वे सब भी अभद्ररूप ही हैं। तनूभृताम्-तनूः विप्रति इति तनूमृनस्तेषाम् । यहाँ स्वस्यामिसम्बन्धमें पष्ठी होनेसे मालुम होता है कि सम्यग्दर्शन और उसके श्रेयोरूप फलके स्वामी सशरीर व्यक्तियोंको बसाना अभीष्ट है । यद्यपि सामान्यतया सम्यग्दर्शन आत्माकी सशरीर और अशरीर दोनों ही अवस्थाओंमें पाया जाता है । परन्तु अशरीर परमात्मा में पाये जानेवाले परम शुद्ध, मखा , एवं हेतुहेतुमद्भाव या साध्य साधनभाव आदि सम्बन्धों से रहित सामान्य सम्यग्दर्शनका वर्लन प्रकृति में प्रयोजनीभूत नहीं है । संसारावस्थामें सशरीर आत्माओंमें पाये जानेवाले सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में ही प्राचार्य कथन करना चाहते हैं, जहांपर कि उसके श्रेयोरूप फलकी संभावना पाई जाती है। विशेष यह कि रजत्रयरूप धर्मके वर्णनमें सर्वतः मुख्यतया वर्णनीय सम्यग्दर्शनका प्राचार्य ने जिन अनुष्टुप कारिकामों में यहां वर्णन किया है उनमें यह अन्तिम कारिका है। आगे की कारिकाका सम्यग्दर्शनके फलरूप विषयक परिवर्तनके साथ-साथ इत भी बदल दिया गया है। यहाँ तक जो कुछ वर्णन किया गया है वह अनुष्टुप छन्दद्वारा केवल मुम्यग्दर्शनकी स्वरूप योग्यताके सम्बन्धमें ही है। आगे जो इस अध्याय की मम्म कारिकाओं में वर्णन किया जागा, वह केवल उसके प्रसाषारस फलका ही विदेश करनेवाला होगा। तात्पर्य- सम्यक् शब्दका व्युत्पन और भव्युत्पम दोनों ही पचमें गई प्रशंसा ही। यह विरोषण होनेसे दर्शन शान चारित्रकी ही नहीं, किसी भी अपने विशेष्यकी प्रशंसाको व्यक्त कर सकता है। श्रेयस् शब्दका अर्थ ऊपर निरुक्तिके अनुसार अतिशय प्रशंसनीय कामा चुका है। फलतः यहोपर कथित सम्बकत्व शम्मको केवल विशेषण मान लेनेपर म उपित एवं संगत नहीं बैठता क्योंकि दोनों ही शब्दोंका समाम मर्च होजाने से उसका मर्म शेमाल प्रशंसाको बराबर मविषय प्रशस्य कोई भी नहीं है। अतएल "नामका एकदेश भी पूरे मामका
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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