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पन्द्रिका टीका चौंतीसा श्लोक रोषक होता है," इस उक्तिके अनुसार सम्यक्त्व शब्दसे सम्यग्दर्शन गुण-बह भाव लेना पाहिये कि जिसके यथार्थरूपमें आविर्भूत होते ही आत्माका प्रत्येक अंश अपूर्व समीचीनताके रूप परिमाप्त हो जाया करता है। अब इसका अर्थ यह होगा कि इस सम्यग्दर्शनके समान अन्य कोई मी द्रव्य गुण पर्याय या स्वभाव अत्यन्त प्रशंसनीय नहीं है। जिसका मतलब यह होता है कि यद्यपि सामान्यतया अथवा अन्य अन्य अपेक्षाओंसे प्रशंसनीय अन्य अन्य पुण धर्म स्वभाव भी हैं परन्तु सम्पग्दर्शनकी बराबर प्रशंसनीय कोई भी नहीं है।
प्रश्न यह हो सकता है कि ऐसा क्यों? उत्तर यह है कि इसमें जो दो असाधारण विशेषताएं हैं पे अन्यत्र नहीं पाई जातीं। इस विषयको राष्ट्रान्त द्वारा स्पष्ट कर देना उचित प्रीत होता है।
प्रश्न-मीठी चीज क्या है ? उपर-पुत्रका वचन । पुनः श्न-अच्छा. किंतु और भी अधिक मीठी वस्तु किसको समझना चाहिश १ उत्तर-पुत्रके ही वचनको । पुनरपि पृच्छाठीक है, परन्तु संसारमें सबसे अधिक मधुर किसको कहा जा सकता है ? उत्तर-वही पुरा वचन यदि श्रुनिपरिपक्क हो । अर्थात् विद्याधुद्धिसे युक्त अनुभवी पुत्रके वचन संसार में सबसे अधिक मधुर है।
यह केवल एक लौकिकर मुक्ति के आधारपर कहा गया दृष्टान्त मात्र है । इसपर से इसमा ही अर्थ लेना चाहिये कि जो जितना अधिक निर्विकार है वह उतना ही अधिक प्रिय है। उसमें भी अधिकतर प्रिय वह है जो निर्विकार होकर आत्मीयतामें अधिक से अधिक निकटसर हो । बच्चा स्वभावतः निर्विकार है अतएव सबको प्रिय है। यदि अपना बच्चा हो तब हो सहज ही अधिक प्रिय होता है।।
एक इसी तरहकी युक्ति और भी है। कहा जाता है कि "समस्त कुरुम्बका जो उद्धार करदे ऐसा व्यक्ति तो गोत्र भरमें एक ही हुआ करता है।" इसका तात्पर्य इतना ही है कि समस्य जीवोंका कल्याण करनेवाली वास्तविक योग्यता सुदुर्लभ है।
दोनों ही दृष्टान्तोंसे अभिप्राय यह लेना चाहिये कि जो अधिक से अधिक निर्विकार है वीतराग है, साथ ही जो अधिक से अधिक हान-दिवेक आदिसे सम्पन्न होकर प्रात्मीय है, फिर इसपर भी पदि वह सबका उद्धार-कन्या- करनेवाला है तो वही सबसे अधिक श्रेष्ठ
___ सम्पग्दर्शनमें ये तीनों ही बातें पाई जाती हैं, साथ ही पुत्रके दृष्टान्तकी अपेक्षाशी कहीं भषिक और वास्तव रूपमें पाई जाती हैं। सम्यग्दर्शन भी निर्विकार है, विवेकपूर्ण होकर मात्मीय है, प्रास्माके समस्त द्रव्य मुख पर्यायरूप कुटुम्बका सच्चा उद्धारक है। तीन लोकमें १-किं मिष्टं सुतवचनं मिष्टतरं किं सदेव मुतवचनं । मिष्टानिमष्टतर कि अतिपरिपक्वं तदेव सुतकवनं ।। २-पस्ने गोत्रे मनाति स पुमान् वा कुटुम्ब पि ।