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________________ कारभावकाचार areanamannmanna किसी भी जीवका इस ताहका उद्धारक-हित करने वाला आजाक न कोई हुमा, न है, न होगा। किसी भी विवक्षित समयमें पाई जानेवाली समस्त जीवोंकी शुभ अवस्थाओं अथवा कल्याणके कारणों में सम्यग्दर्शनकी बराबर कोई भी हित रूप अवस्था या उसका कारण नहीं . पाया जा सकता यह बात नाना जीचोंकी अपेक्षासे है। किन्तु एक व्यक्ति की अपेक्षा भी यही बात है। उसकी क्रमसे होनेवाली औकालिक सभी प्रशस्त अवस्थाओं अथवा गुणधर्मों में से कोई मी ऐसा नहीं पाया जा सकता जो कि जीवका कल्याण करनेमें सम्,ग्दर्शनकी तुलना कर सके । अबतक जिन अनन्त जीवोंने संसारके अनन्त दुःखोंसे छुटकारा पाकर अनन्त शास्वत अन्यावाथ उचम सुखको प्राप्त किया है अथवा कर रहे हैं, या मागे उसको प्राप्त करेंगे उसका थेय सम्यग्दर्शनको ही है क्योंकि उसका सबसे प्रधान और मूल कारण सम्यग्दर्शन ही था, है, और रहेगा। काल्ये और बिजगति शब्दोंसे श्रेयोरूप विषयोंमें ऊर्यता सामान्य सथा नियक सामान्य की दृष्टिसे विचार करना चाहिये । यह बाब ऊपर कही जा चुकी है। क्योंकि ऐसा करन से एक जीवकी शपेश एवं नाना जीवोंकी अपेक्षासे कोई भी कहीं भी कभी भी होनेवाला हित रूप परिण म शेष नहीं रहता। इसके साथ ही दोनों शब्दों में जिस सप्तकी विभक्तिका निर्देश किया गया है नह भयारणार्थक हैं। इससे गौणतया यह बारा भी स्पष्ट हो जाती है कि हितरूप या हितका साधक केवल सम्यग्दर्शन ही नहीं है। अन्य भाव भी है। उदाहरणार्थ-यदि कोई यह कहता है कि "गोत्रों में काली गो अच्छा दूध देती है ।" तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि काली गौ के सिवाय अन्य मौए दूध ही नहीं देती। उसकाअाशय तो इतना ही है कि दुध देनेवाली दो अन्य भी गौए हैं। परन्तु उन सबमें काली गी अधिक और अच्छा दूध देनी है। इससे अन्य गौओंका भी दूध दना स्पष्ट हो जाता है । प्रकृतमें भी यही बात समझनी चाहिये। जीवके लिये श्रेयस्कर तो अन्य भी परिणाम या भाव होते हैं, परन्तु उन सबमें सम्यग्दर्शन अद्वितीय असाधारग्गु और मुख्य है, स्वयं सम्यग्दर्शन जिन परिणामों या प्रवृत्तियोंसे अथवा भावोंसे प्रकट होता है, सम्यादर्शन की विरोधिनी फर्म प्रकृतियोंका हास जिन भावोंसे होता है, पा हो सकता है, करण लम्थिरूप अथवा उसके लिये भी जो परिणाम एवं प्रवृत्तियां साक्षाद अथवा परम्परा निमित्त है, जो जो साधक निमित्तरूप हैं अथवा प्रतिबन्धक कारणके विरोधी हैं वे सब भी प्रात्माके हिवरूप ही है फिर चाहे वे जीवक आभन्न परिणाम हों अथवा भिन्न द्रव्य क्षेत्र काल भाव ही क्यों न हो। इसके सिवाय सम्यग्दर्शनक प्रकट होनके बाद भी उसके उद्योतन उबरन निर्वाह सिद्धि और निस्तरणमें अन्तरंग बहिरंग अनेक एवं अनेकसिथ जो जो साधन k-निर्धारणार्थक यथा निर्धारणे ।। ४०७ ।। कातन्त्र । तथा यतश्च निर्धारणम् " ॥ २-३-४१६ पाक सि० को०। गांगो बाया सम्पन्नक्षीरा।।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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