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________________ धान्नका टीका चौतीसका श्लोक सा अपेक्षित ह व सब भी अात्माकं हितरूप ही हैं। यों तो पुण्य कर्म आर उनके जितने भी कारण तथा फल है व भी लोकर्म इष्ट-प्रशस्त तथा हितरूप माने जाते हैं परन्तु जहातक उनका सम्यग्दर्शनस सम्बन्ध नहीं है वहांतक तच्चज्ञानियों की दृष्टि में वे परमार्थतः आन्माके हितरूप नहीं हैं। किन्तु सभ्यग्दर्शन तो वस्तुतः आत्माके कल्याणकारी भावों में सर्वोपरि है। उसकी तुलना कोई भी श्रेयोरूप भाव नहीं कर सकता। मोहमार्गका सम्राट् गदि उराको कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी : योग्य राजाके रहते हुए उसकी समीचीन दृष्टिक नीचे राज्य सभी अंग जिस तरह ठीक ठीक काम किया करते हैं उसी प्रकार प्रकृतम भी समझना चाहिये। अन्य द्रव्यों की तरह आत्मद्रव्यके भी मुख्यतया चार भाग हैं। द्रव्य क्षेत्र काल और भाष । सम्भग्दर्शनक होनेपर ये चारों ही विभाग दुःखरूप संसारके विरुद् और उत्तम मुखमय मोक्षावस्थाके अनुकूल ठीक-ठीक कार्य करने लगते हैं । कान्य और त्रिजगति शब्द सामान्यतया काल और हिभागकम तदित कर देते है। इसी प्रकार किंचित शब्द द्रव्य और भावको बोध कराता है। सम्यग्दर्शनके प्रकट होनेपर अथवा उसके पूर्व इस नन्मृनु-संमारी प्राणीक श्राबद्ध द्रव्य कर्मों या भाव काँकी अवस्था में जो लोकोत्तर निर्माणोन्मुखताको सिद्ध करनेवाला अपूर्व परिवर्तन होता है तथा उसके फल स्वरूप आत्मद्रव्यकी विशुद्धिमें जो सर्वाङ्गीण आधिभाव होता है, इसके साथ ही आत्माकी द्रव्यपर्यायों में प्रदेश या क्षेत्रकृत जो संसारकी अनन्तसंततिको सीमित करनेवाला अद्भत भाव संस्कार प्रादुर्भूत हो जाता है, अधिकतर निकृष्टतम और निकृष्टतर तथा विविध निकृष्ट अर्थ-पर्यायों का अत्यन्ताभाव हो जाता है, संसार लतिका और उसके विपफलो का जो वंश-ध्वंस करनेवाला वीजगत रसक्षय होता है, वह अन्य किसी भी कारणसे संभव नहीं है । तीन लोकमेंसे कहीं भी किसी भी प्रात्मामें और कभी भी सम्यग्दर्शन के विना अन्य किसी भावके द्वारा कर्म और आत्माका यह चतुर्विध अपूर्व अयोरूप विकाश न हा. न है, न होगा । यही कारण है कि प्राचार्य संसार दुःखोंसे हटाकर उत्तम सुख-अनन्त अध्यावाध शुद्ध स्वाधीन नःश्रेयस अवस्थाके असाधारण कारण रखत्रयरूप धर्म में सर्वप्रथम आदरणीय एवं उपादेय सम्यग्दर्शनका इस अध्यायमें वर्णन करके इस कारिकामें उसकी महिमा का सार एक ही वाक्य के द्वारा बताते हुए कहते हैं कि इस जीवका वास्तविक कल्याण करनेवाला सम्यक्त्वकी घरावर हीन लोकों में-सुर असुर और मर' लोक में न कोई ड्या, न है, न होगा। साथ ही इस बातको भी वे स्पष्ट कर देते हैं कि जिस तरह जीयका कल्याण करनेवालोंमें सम्यग्दर्शन सर्वोपरि है, उसी प्रकार जीवके हितों या कल्याणोंका विध्वंस करनेवालोंमें मिथ्यात्यकी परापर और कोई नहीं है, वह भी सर्वोपरि है। यह इसलिये कि संसारके दुःखासे अबडाये हुए भव्य प्राणी अपनी मनादि दुःख परम्परा के मूलभूत वास्तविक अन्तरंग कारणको समझकर उससे सावधान हों और उससे पचे रहनेमें अप्रमत्त बने रहें। साथ ही अनन्त लक्षय कर्म ५०
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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