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________________ NAMAN रलकरकालावधवार आयकोर पवारणभूत दोषि-समाधिको सिदिमें सम्पादनको प्राप्तकर सम्पूणे सफलता प्राप्त कर सकें। ___ सम्पग्दर्शनके होनेपर जीवात्माको जो-जो फल प्राप्त होते हैं उनको सामान्यतया दो भागा में विभक किया जा सकता है। अन्तरंम और बाझ अथवा नैःश्रेयस और भाभ्युदयिय । इस अवसर पर इन दोनों फलोंका निरूपण करना भी उचित और आवश्यक समझाकर काम सबसे पहिले अन्तरंग अथवा नैःश्रेयस रूप प्रधान फलका वर्णन करते हैं: सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यक नपुंसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च ब्रजन्ति नाप्यतिकाः ॥३५॥ अर्थ-जो शुद्ध सम्पादृष्टि हैं वे प्रतरहित होकर भी नरकगति, तिर्यम्गति, नपुसक लि, स्त्रीलिङ्ग, दुष्कुल, विकृत अवस्था, अन्य भायु और दरिद्रताको प्राप्त नहीं किया करते । प्रयोजन---यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है और यह कहावत भी सर्वजन-सुप्रसि. कि "या या क्रिया सा सा फलवती" कोई भी क्रिया क्यों न हो उसका कुछ न कुछ फल अवश्य होता है। साथ ही यह भी उक्ति प्रसिद्ध है कि "प्रयोजनमन्तरा मन्दोऽपि न प्रवर्तते।" साधारण शान रखनेवाला भी व्यकि किसी भी काम यिना प्रयोजनके नहीं सुना करता । इन उक्तियों के अनुसार सम्यग्दर्शन-श्रद्धानरूप क्रियाका फल और प्रयोजन बताने के लिये इस कारिकाका निर्माण आवश्यक हो गया है। क्योंकि देखा जाता है कि अज्ञान और अविवेकपूर्वक कुछ लोग ऊटपटांग क्रियाएं भी करते हैं। फल तो उसका भी फिर चाहे वह हानिकारक ही क्यों न हो, होता ही है। इसी तरह तबझानसे शून्य-विपरीत संशयित आदि मिध्या श्रद्धानी मोडी पुरुषोंके द्वारा ऐसे प्रयोजनको टिमें रखकर भी प्रवृत्ति हुआ करती है, जो कि अहितरूप एवं भनिए ही है । अतएव हितरूप अभीष्ट फलको उत्पन्न करनेवाली क्रियायें कौनसी हैं और उनका फल क्या है, यह बताना आवश्यक है । आत्माका बास्तविक हिस-कन्याय करनेवाली सर्वोत्कृष्ट क्रिया सम्यम्दर्शन है, यह ऊपरके कथा से मालुम हो सकता है। किन्तु यह ऋधन उस क्रियाक फल निर्देशके द्वारा समर्थित होना चाहिये । जिस तरह श्राचार्योंने सम्पमझामकी प्रमाणताका वर्णन करते हुए स्वरूप संख्या विषय विप्रतिपत्तियोंका निराकरण करके अन्त में अज्ञाननिवृचि और हानोपादानोपेचारूप फलको बसाकर फल-विपतिपत्रिका भी परिक्षार करके यह स्पष्ट कर दिया है कि सम्याज्ञानकी प्रमाणता-अथवा ज्ञानकी वास्तविक समीचीनता सभी मान्य-आदरणीय-विश्वसनीय हो सकती है जब कि इन कथित चार४ प्रकारके फलों से कोई भी १-दुक्खखभी, कम्ममाओ, बाहिलाहो, समाहिमरणं इत्यादि इष्टप्रार्थनायाम् ॥ २-यस्य कस्य तरामूलं येन केन मोजितम् ।। यस्मै कस्मै प्रशसभ्य यदा तदा मिष्यति ॥ लोकोकि। -जीवाल, गोमेधावियाह, सतीदाइ, शाम सुरापान मा ॥ ४-मानमिति, सन, पादाम और सेवा महाममिचिदानोपाबानोपेचारच फलम् प० मु०-१॥
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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