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चन्द्रिका टीका बीसीमा श्लोक
.............. सभी द्रव्य पयर्यायों एवं अर्थ पर्यायसि है। कारण कि किसी भी वस्तुनचका सर्वाङ्गीण विचार करनेमें उसके द्रव्य क्षेत्र काल भाव इन चारों भेदोंपर दृष्टि रखना उचित ही नहीं
आवश्यक भी होना है। इन चार भेदों में से "कान्ये" और "त्रिजगति" ये करडोक्त शब्द क्रमसे काल और क्षेत्रको स्पष्ट कर देते हैं। फलतः द्रव्य और भाव ये दो भेद जो शेष रहते हैं उन्हींका यहां इस किंचिन् शब्दमे ग्रहण समझना चाहिये।
काल्ये-जयश्च से कालाश्च त्रिकाला:, त एव काल्यम् । इस तरह त्रिकालशब्दसे स्वार्थ पण प्रत्यय करने से यह शब्द बनाना है। प्रथया प्रयाणां कालानां समाहारः, औकाल्यं । इस तरह समाहारपूर्वक त्रिकाल शब्दसे व्या प्रत्यय होकर भी यह शब्द बन सकता है । अर्थ एक ही है-नीन कालमें । भूत भविष्यत् वर्तमान ये तीन काल प्रसिद्ध है। कालद्रव्पकी भूत भविष्यत् वर्तमान अनन्त समय रूप पर्यायों की यहां मुख्यता नहीं है। किन्तु क्रमसे एक ही द्रव्यमें होने वाली अनन्त पर्याय विवक्षित है। मतलब यह है कि किसी भी विवक्षित एक द्रव्य-जीव मुख्यमें होनेवाली भूत भविष्यत् वर्तमान सम्बन्धी अनन्तानन्त द्रव्यपर्यायों और अर्थ पर्यायों में से, इस तरहका अर्थ ग्रहण करना चाहिये।
त्रिजगति-त्रयाणां जगतां समाहारः त्रिजगद, तम्मिन् । अर्थात् तीन लोकमें। जिसतरह ऊपरका "त्रकाल्ये" शब्द ऊर्णता सामान्यको दृष्टिमें रखकर कहागया है उसी तरह यह "त्रिजगति" शब्द तिर्यक सामान्यको लक्ष्य में लेकर कहा गया है। क्योंकि एक जीव की तरह नाना जीवोंकी अपेक्षासे भी प्राचार्य बताना चाहते हैं कि किसी भी विवक्षित एक समयमें सम्पूर्ण अनन्तानन्त जीवोंके पाये जानेवाले भावोंमें से--समस्त द्रव्यपायों और अर्थ पर्यायोंमेले, कोई भी ऐसा भाव नहीं है जो कि सम्पक्त्वकी समानता रखता हो।
अपि-यह अध्ययपद है। यों तो इस शब्दकै सम्भावना, निन्दा, प्रश्न, शङ्का, निश्चय मादि अनेक अर्थ होते हैं। पातुओं के साथ उपसगके रूपमें भी यह प्रयुक्त हुआ करता है। यहां पर इसका अर्थ "मी" करना चाहिये । मतलप यह कि किसी एक जीव-विशेषके भावों में ही यह बात नहीं है अपितु सभी जीवोंके पाये जानेवाले--समस्त संभव मावों में से भी कोई भी मात्र ऐसा नहीं है जो कि सम्यक्त्व के समान माना पा कहा जा सके।
श्रेयः--अतिशयेन प्रशस्यं श्रेयः। प्रशस्य शब्दको श्रमादेश और उससे ईगम् प्रत्यय होकर यह शब्द बना है। नपुंसकलिङ्ग प्रथमा एक वचन और सम्यक्त्वसमं का विशेष्यभूत है। इसका अर्थ होता है-अस्य॒स्कृष्ट कल्याण । मंगल अम्पुदय शुभ शिव मद्र पुपय इत्यादि इसके पर्यायवाचक शब्द हैं। यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि यहापर यद्यपि मुख्य रूपसे सम्पग्दर्शनको ही-जो कि जीवका शुद्ध स्वतन्त्र महान भाव है। अमेद विवधासे मंगल कहा गया है। किन्तु भेद विवचा और व्यवहारसे अन्य भी कन्याखों का उल्लेख इस वर्णन में आन्तमिशित है । जोकि गौस होनेपर भी सर्गथा उपेषणीय नहीं है। जैसा कि भागेके पर्शन