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________________ । निकराडभावकाचार साथ ही जो बात वहांपर 'यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः।" इस वाक्यके द्वारा कही गई थी उसीको यहाँपर प्रकारान्तरसे "अश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत् तनुभृताम्" इस बाक्यक द्वारा उपसंहाररूपमें दुहरा रहे हैं। प्रश्न--धर्म तो सम्यग्दर्शन आदि तीनोंकी साटिको यह कहा था और यहां केवल सम्यग्दर्शनका ही महत्व बताया गया है । अतएव इस कथनका सम्पग्दर्शनक वर्णनका उपसंहार तो कह सकते हैं । परन्तु धर्मका उपसंहार किस तरह कहा जा सकता है ? अथवा जो महाच सम्यग्दर्शनादि तीनोंका हो सकता है वह केवल सम्यक्त्वका ही किम तरहसे कहा या माना जा सकता है ? पदा क्योंकर यह कथन उचित समझा जा सकता है ? उत्तर- ऊपर यह बात स्पष्ट की जा चुकी है कि रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग में प्रधानभूत नेतत्व सम्यग्दर्शनका की है। यद्यपि ज्ञानधारित्र भी अपना असाधारणरूप रखले है फिर भी उनमें समीचीनताका आधान करके उनको मोक्षमार्गी बना देनेका-उनको योग्य समुचित उपादेय दृष्टिमोक्षकी दिशामें मोड देनेकी कृतिका श्रेय तो सम्यग्दर्शनका ही है। फिर ऐसा कौन कृतघ्न होगा जो कि इस महान उपकारके प्रति अपनी कृतज्ञताको प्रकट वरना उचित न समझेगा । यही कारण है कि सम्यक्त्वमूर्ति भगवान् समन्तभद्रने मोक्षमार्गकी सम्पूर्ण सफलताओंको सम्यग्दर्शन पर निर्भर मानकर उसीकी यशोगाथाका यहाँपर उल्लेख करके समन्तती भद्र विषयका उपसंहार किया है। उसकी सर्वाङ्गीण कल्याणरूपताको संक्षेपमें-सूत्ररूपसे यहांपर सूचित कर दिया है। शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ "म" यह निषेधार्थक अव्या है। निपेथ दो तरहका हुआ करता है एक पदास और इसरा प्रसह्य । यहां पर एयुदास अर्थ नहीं लेना चाहिये क्योंकि किमी की सहशता पताना अभीष्ट नहीं है। केवल निफ्धमात्र ही बताना इष्ट है। सम्यक्त्वसम्र-यहाँपर तृतीया सभास है। सम्यक्त्वेन मर्म-सम्यक्त्वसमम् ! सम्यक्त्वेका अर्थ सम्यग्दर्शन और सम शन्दका अर्थ तुल्य सदृश या समान होता है। ध्यान रहे समानता दो प्रकारकी हुआ करती है १ ---एक ही वस्तुकी कालकमसं होनेवाली अनेक अवस्थामों में पाई जानेवाली सदृशता । १--एक ही समय में विभिन्न वस्तुओंके होने वाले परिणमनोंमें पाई जानेवाली समानता । इन्ही को ऊर्ध्वता सामान्य श ल्य , भी शकिसा. मान्य या सादृश्य सामान्य शब्दों से श्रागम में कहा गया है। यह शब्द श्रेयः का विशेष है । जिससे समस्त श्रेयोरूप पदार्थों में सम्यक्त्व की विशेषता सूचित होजाती है। किंचित-यह एक अव्ययपद है। किम् शब्द से चित् प्रत्यय होकर बना है। इस शब्द का प्रयोग ऐसी जगह हुआ करता है जहाँपर विशेष नाम आदि का निर्देश विवक्षित न होकर सामान्य उस अभीष्ट हो । अतएव इसका अर्थ होता है 'कोई भी' आचार्यका अभिप्राय भी इस शब्दसे सम्पूर्ण द्रव्य या मात्मद्रग्य तथा उनकै समस्त गुणों और उनकी SPE
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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