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यन्द्रिका टोका सत्ताईस श्लोक
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रमत्रयरूप सम्यग्दर्शनादिक तीनों ही जीवात्मा के धर्म होने के कारण स्वाधीन हैं कालानवच्छ हैं, पवित्र निर्मल और स्वयं कन्याणरूप हैं तथा दूसरे असाधारण कल्याणों के लिये बीजरूप हैं। जबकि स्मय विषयरूपसे परिगणित आठों ही विषय चारों ही प्रकारों में पुलनिमिचक पपीलिक होने के कारण विरूद्धस्वभाव हैं । यथाक्रम कर्मों की प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेशों के प्राश्रित हैं। पहले तीन विषयों में जो महान् अन्तर है वह तो स्पष्ट ही हैं । अन्तिम विषयक अन्तरको यहां थोडा स्पष्ट कर देना उचित और आवश्यक मालुम होता है
ant for आठों ही सामग्री सम्यग्दृष्टी और मिध्यादृष्टि - श्रात्मधर्म से युक्त और रहित अर्थात् जिसके पापका निरोष होरहा है और जिसके पापका आस्रव हो रहा है दोनों ही प्रकारके जीवोंको सामान्यतया अपने २ पापकर्मीके क्षयोपशम या पुण्यकर्मो के उदयके अनुसार प्राप्त हुआ करती है। फिर भी दोनों के उस वैभवमें जो महत्वपूर्ण असाधारण अन्तर है वह ध्यान देने योग्य है।
ज्ञान- इसके पांच भेदोंमें से देशावसेि ऊपर के परमावधि सर्वावधि मन:पर्यय और कालज्ञान तो मिध्यादृष्टि को प्राप्त होते ही नहीं, श्रुतज्ञानमें भी अभित्र दशपूर्तित्व से ऊपरके चतुर्दश पूर्वस्व और केवल प्राप्त नहीं होते । मतिज्ञान के मेदोंमें भी बहुत से बुद्धि ऋद्धिके भेद ऐसे हैं जो सम्यग्दृष्टि को ही प्राप्त होते हैं। इसके सिवाय शुद्ध निज आत्मस्वभावकी अनुभूति भी समयग्दर्शनसे ही fearnव रखती है। तथा किसी भी ज्ञानकी विषयाव्यभिचारिता जो और जैसी सम्यग्दृष्टि के होती है वैसी अन्यकी नहीं |
पूजा -- सम्यक्त्वसहित जीव मरणकरके जिस किसी भी गविमें जाता है उसीमें उत्कट अवस्था को ही प्राप्त किया करता है। यह नियम मिध्यादृष्टि के लिये नहीं हैं।
कुल आदि के विषयमें भी यही बात है। जैसा कि आगे चलकर स्वयं ग्रन्थकार कहेंगे कि सम्यग्दृष्टि जीव दुष्कुल में जन्म धारण नहीं किया करता उसी प्रकार वह लोकग मातृपक्ष में भी उत्पन्न नहीं हुआ करता । चकाकी केवल दो भुजाओं में पट्खण्ड में रहनेवाले सम्पूर्ण मनुष्योंकि संयुक्त बलसे अधिक बल रहा करता है। शक्रमें समस्त जम्बूद्वीपको भी पलट देनेकी शक्ति रहा करती है। तीर्थंकरोंका गृहस्थ एवं द्मस्थ अवस्थामें भी जो चल रहा करता है उसका प्रभाषा तो किसीकी तुलना करके या उपमा देकर नहीं बताया जा सकता; अतएव उसको अतुल्य ही कहा हैं। वह भी मिध्यादृष्टिको फिर चाहे वह कितना भी घोर तपश्चरण करके पुण्यार्जन क्यों न करे घास नहीं हुआ करता । बल ऋद्धिकी तो बात ही क्या है १ ६४ ऋद्धियोंके लिये भी यही बात है तथा सम्यक्त्व के विना जब वास्तवमे - अनुपचारित धर्मध्यान भी नहीं हो सकता तब शुक्ल ध्यान रूप तरश्चरण तो होही किसतरह सकता है। कामदेवोंका शरीर भीं सम्यक्त्व सहचारी पुपके द्वारा हीं प्राप्त हुआ करती है। देवोंके शरीरमें भी यह एक विशेषता पाई जाती है कि अन्तिम समय में अन्यदेवोके समान वह म्लान नहीं हुआ करता ।