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________________ रत्नकरावकाचार इसके विरुद्ध मिथ्यारष्टिको यदि कदाचित् निरतिशय पुण्यके बलपर यही विभूनियां प्राप्त होती भी है तो वे किननी हीन होती हैं यह पात ऊपरके कथनसे ही' मालुम हो जा सकती है। क्योंकि ऊपर चार प्रकारका जो कर्म निमित्तक अन्तर बताया है उससे उसकी हेयता स्वयं ही प्रकट होजाती है फिर ये सब वैभव भी तत्वतः लौकिक ही तो हैं अतएव चाहे सम्यग्दृष्टिको प्राप्तहों चाहे मिथ्याष्टिको, कर्माधीन होने के कारण कर्म प्रकृति के अनुरूप ही प्राप्त हो सकते हैं। न कि आत्मस्वभावके अनुसार । तथा कोशी स्थिति तक ही इनका अस्तित्त्र सीमित है आगे नहीं । उसी प्रकार इनकी हरता या दुर्बलता कर्मों के अनुभाग पर निर्भर है न कि जीवक स्वत:क बल पर | फिर सबसे बड़ी वात यह है कि इन कॉंके प्रदेशोंके अस्तित्वकी संतान तबतक समाप्त नहीं होती. जब तक कि सबकोंक मूलभूत पाप कम मिथ्यात्वका निरोध नहीं हो जाता । एकचार मी यदि मिथ्यात्वका निरोव होजाय तो फिर उस जीवका संसार सावधिक होजानेसे एक अन्तर्मुहर्तसे लेकर अर्थ पुद्गल परिवर्तन कालके भीतर समाप्त होकर ही रहता है। ___ सम्यग्दर्शन प्रकट होने के पूर्व भव्य अभव्य दोनों के ही पाई जानेवाली चार लब्धियों से पहली बयोपशम और दूसरी विशुद्ध लब्धिके परिणामस्वरूप जो पाप कर्मीका हास और पुण्य कर्नामें उस्कर्ष हुआ करता है वह वैभव भी जब इतना असामान्य है कि साधारण निरतिशय मिथ्यारियों को प्राप्त नहीं होसकता तब सम्यक्त्व के हीजानेपर-पापशिरोमणि मिथ्यात्वका सर्वथा निरोध होते ही जो ४१ पाप कर्मों के विच्छेद-संवरके साथ २ प्रथम निर्जरा स्थानका लाभ होता है उस सम्पति की ती मांसारिक किम विभूनिसे तुलना की जासकती है ? किसी से भी नहीं अतएव जो व्यक्ति अपन ऋथित सांसारिक बाध वैभवके अभिमानवश इस महान सम्पनिकी तरफ दुर्लक्ष्यकर धर्मात्माओंके रूप में धर्मकी अहलना करता है वह अपनी ही हानि करता है-अपनेको ही नीचे गिरा लेता है। मिथ्यात्वका निरोध हाजानेपर संसारका ऐसा कोई भी पद या मव नहीं है जो उसको प्राश नवीसकता हो । और जबतक उसका उदय होरहा है तबतक कोई ऐसा दुःखरूप स्थान नहीं है जो उसको प्राप्त न हासकता हो । यह दुःखमपी संसार जो कि पंच परिवतेनरूप है उसका स्वामी पापामवसे युक्त सिध्याइष्टि ही है। इसका निरोध होजाने पर सम्याडष्टि जीवकी पांचों परिव धों में से सबसे पहले एवं सबसे छोटे एक पुदगल परिवर्तनका भी अर्थ भागसे अधिक नहीं भोगना पडता। जबकि मिथ्यात्वका निरीष न होने पर-पापास्त्रवसे युक्त जीव व्यवहार राशिमें मी ही हमार सागरसे अधिक रह नहीं सकता, इसके बाद उसको नियमसे निगोद राशिमें जाना जी पड़ता है। भव्याभव्यक सामान्यरूपसे पाई जानेवाली प्रायोग्यलब्धिक प्रकरणमें जो ३४ बन्यापसरण बताये गये हैं उनमें मनुष्यक पाई जानेवाली बंधयोग्य ११७ कर्म प्रकृतियों में में कंबल ७१ हीका बंध होता है, शेष ४६ प्रकृतियों की व्युनिति-बंधापसरव हो जाता
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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