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________________ चद्रिका टीका अट्ठाईसवाँ भोक है। किन्तु मिथ्यात्वकी म्युछित्ति नहीं होती । यही कारण है कि इतना होजाने पर भी यह संसार---पंच परिवर्तनके अधिकारसे मुक्त नहीं हुआ करता। इस सब कथनसे यह बात ध्यानमें आ सकती है कि यदि पाप-मिथ्यात्यका निरोष होजाता है संभ ती संसारका बसे बडा महान्से महान् और उत्तमसे उत्तम ऐसा कोई वैभव नहीं है जो प्राप्त न हो सकता हो। उसकी तो वे सब स्वयं ही बिना किसी इच्छा या प्रयत्न केही प्राप्त हो जाया करने हैं। क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीप नि: काध होने के कारण सांसारिक मक्की इच्छासे पुण्यापार्जन करने के लिये तपश्चरणादिमें प्रयत्न नहीं किया करता वह तो भासिद्धिकर कारण संपर मार्गाच्यवन और निर्जराको सिद्ध करने के लिये तपमें प्रवत्त हुशा करता है। हां, उसको परिणामोंको विशुद्धिविशेषताकै कारण स्वयं ही पुण्य विशेषका अर्जन होता है और उसके असाधारण फलका लाभ भी हुआ करता है। जबकि पापाव वाले मिथ्याष्टि जीपको वह विशुद्धि न रहने के कारण वह पुण्य और उसका वह फल भी प्राप्त नहीं हुआ करतार अतएव स्पष्ट है कि पापनिरोधी जीव जहां अपनी अन्तरंग विभूति से स्वयं महान है और स्वयं प्राप्त होनेवाली बाध विभूतियों की निःकांक्ष होनेके कारन उसे आवश्यकता नहीं है वहां पापासथी जीव अन्तरंगमें दरिद्र है और कदाचित् पापोदयकी मन्दना का पुण्योदयके कारण उसको उक्त बाघ वैभव जिसके लिये यह लालायित है प्राप्त हो भी गया १ सो भी या नगण्य है----उक्त चार कारणोंसे उसके उस वैभवका कोई मून्य नहीं है। सम्यग्दृष्टिको चाहिये वह इस सिद्धान्तको दृष्टिम ले और आठ विषयोंके श्राश्रयसे होनेवाले म्मयों द्वारा अपने सम्यग्दर्शनको मलिन न होने दे। इसतरह स्मयका लक्षण, और यह कब कहां किस प्रकार सम्यग्दर्शन का दोषाधायक निमित बनजाता है इसके समझने एवं निर्णय करनेकी पद्धति, तथा उसके विषय में सैद्धान्तिक महत्वपूर्ण रहस्यको बताकर आचार्य महाराज कुछ ऐतिहासिक घटनाओंको दृष्टि में रखकर दृष्टान्तभिंत सालंकार माषामें सम्यग्दर्शनकी महत्ता एवं संरक्षणीयताका समर्थन करते हुए उपर्युक्त कारिका कथित विषयका ही स्पष्टीकरण करते हैं। --- सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातगदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरोजसम् ॥२८॥ अथं—मातंग-चाण्डालक शरीरसे उत्पन्न व्यक्तिको भी यदि वह सम्पदर्शनस सम्पन है तो देव-अरिहंत देव या गणधर देव जिसका अभ्यन्तर भोज भस्मसे लिगा हुमा है ऐसे अंगारके समाम देव मानते हैं। १ -इस विषयमें अधिक जानने के लिये देखो लब्धिप्तारके प्रारम्भकी गाथा २०११ से १६ तक भौर उसकी टीका ! २--"मार्गाच्यवननिर्जरा परियोदव्याः परीषहाः ।" त० सू०५-६।३-पुरणांक को कमी संसारोग ईहिदो होदि । दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुरणाणि ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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