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________________ चन्द्रिका टीका बत्तीसवा श्लोक यह समझना गलत होगा कि किसी भी श्रागे होनेवाली वियक्षित एक पर्याय के प्रति ये दोनों ही उपादान कारण बताये गये हैं। क्योंकि वस्तुत: ज्ञान और चारित्रके परिणमन भिन्न भिभ ही हैं। ज्ञान अपनी पर्यायों का उपादान कारण है और चारित्र अपनी पर्यायोंका उपादान है। ज्ञान चारित्रकी पर्यायोंका और चारित्र ज्ञानकी पर्यायोंका उपादान नहीं है और न ही हो सकता है। फिर भी एकके प्रति दूसरा परिणमनमें निमित्त अवश्य होता है । वास्तव में दर्शन ज्ञान और चारित्र आत्माके अभिमसचाक गुम होते हुए भी स्वरूप संख्या विषय फल आदिकी अपेक्षा भिन्न भिन्न ही हैं । सम्यग्दर्शनका स्वरूप सामान्य निर्विकल्प वचनके अगोचरर हैं । उसका विषय भी वास्तव में अनन्न गुणोंका पिण्ड अखण्ड शुद्ध प्रात्मद्रव्य है। कोई भी उमका खण्ड अथवा उससे सम्बन्धित पदार्थ व्यवहारसे अथवा उपचारसे ही उसका विषय कहा और माना जाता है । सम्यग्ज्ञानका स्वरूप विशेष एवं सविकल्प है। उसके श्राकार विशेषको वचनके द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। आत्माके अनन्त गुणों में यही एक गुण-चेतनाकी ऐसी साकार परिणति है जो कि स्वयं अपने और दसरोंके भी स्वरूपको विशेष रूपसे ग्रहण करनेमें समर्थ३ है। और जिसके कि द्वारा सभी पदार्थों एवं आत्माके भी गुणों एवं पर्यायोंका बोध कराया जा सकता है । सम्यक चारित्रका लक्षण-स्वरूप भी सम्यग्ज्ञानकी तरह आगे बताया जायगा किन्तु इसका मूल सम्बन्ध आत्माके वीर्य गुण से है। मनीवर्गणाओं, वचनवर्गणाओं और कायर्गणामोंक भवलम्बनसे जब इसकी प्रवृत्ति होती तब इसीको योग कहते हैं । और जब इसके साथ अनादि कालसे चला आया मि यान्त्र और कपायके उदयादिका सम्बन्ध हट जाता है तब इसी को सम्यक चारित्र कहते है। योगको इन भिन्न भिन्न अवस्थाओं में उसके कार्य भी भिन्न भिन्न प्रकारके ही हुआ करते हैं । योग शब्द युज धातुसे बना है अतएव निरुक्ति के अनुसार भाशय यह होता है कि इसका यात्रा एवं बन्ध प्रकृति यन्ध और प्रदेशचन्धरूप जो कार्य है वह उसकी संयुक्त अवस्थाके द्वारा ही संभव है। जब तक वीर्यशत्ति में महका सम्बन्ध-संयोग बना हुआ है तभी तक यह अपने इस कार्यको कर सकता है और किया करता है । मोहका सम्बन्ध न रहने पर वर्गणाओंके अवलम्बन मात्रसे भी इसके द्वारा कमौके आगमनका कार्य होता है। किन्तु वह नगण्य है। क्योंकि उसमें स्थिति और अनुभाग नहीं रहता । वीर्य गुणकी कायीपशामिक दशामें मोहके उदयका जो विशिष्ट सम्पर्क है वह योगमें मुख्यतया विवक्षित है । अतएव इसकी सामान्यतया तीन दशाएं होती हैं—मिध्यान्व कवायसहित, मिथ्यावरहित कपायसहित, मिथ्यात १-सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्म कंवलज्ञानगोचरम् । गाचरं स्वावधिस्वान्तपर्ययज्ञानयोद्वयोः ॥३७॥ म गोधरं भतिक्षानश्रुतज्ञानद्वयोमनाक । न्नपि दशावधस्तत्र विषयोऽनुपलब्धितः ॥३४६।। अस्त्यान्मनो गुणः कश्चित् सम्यक्त्वं निर्विकल्पकम् । तदृड मोहोदयान्मिथ्यावादुरूपमनादितः ।।३५७|सम्यक्त्वं वस्तुतः सुक्ष्मस्ति वाघामगोचरम । तस्माद्वक्त च श्रोतुच नाधिकारी मिधिम्मात् ॥४००। पंचा० २-श्रुतं पुनः स्वार्थ परार्थं च भवति। ३-शानादिना गुणाः सर्वे प्रोक्ताः सल्लक्षणाहिताः । सामान्यादा विशेषाना सत्यं नाकारमानुकाः ||३६५ सतो वक्तु मशक्यत्वात् निर्विकल्पस्य पन्तुनः । तदुल्ले समालेख्य हानद्वारा निरुप्यते ॥३३॥ पंग
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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