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________________ लकरएहश्रावकाचार निर्वाह सिद्धि और निस्तरण अथवा मोक्ष मागकी स्थिति वृद्धि और फलोदय सम्यम्ज्ञान और सम्यक चारित्रपर निर्भर है । क्योंकि उन्हींके द्वारा सम्यग्दर्शन निस्तरण अवस्था तक पहुंच सकता है । ज्ञान और चरित्रके सम्यक हुए विना क्रमसे अन्ततककी सभी अवस्थाएं सिंद नहीं हो सकती । क्योंकि देखा जाता है कि आज्ञा सम्यक्त्वसे लेकर परमात्रगार सम्पक्त्व तक जो सम्यग्दर्शनकी उत्तरोत्तर विकाशरूप दश अवस्थ एं हैं उनमें मुख्य सम्बन्ध सम्यग्ज्ञानका है साथ ही सम्यकचारिश का भी अन्तरंग सम्बन्ध है । बुद्धि ऋद्धि अथवा सम्यम्झानके अनेक भेद ऐसे हैं जो कि सम्यक चारित्रके बिना सिद्ध नहीं होते । यही कारण है कि अभव्य मिथ्या दृष्टि नौ पूर्व से अधिक अध्ययन नहीं कर सकवार । यदि कदाचित् कोई भन्य होकर भी गिध्यादृष्टि है तो वह भी दशपूर्विच्च ऋद्धि सिद्ध नहीं कर सकता । जिस प्रकार श्रुत म्यग्दर्शनको केरल अवगाद, केवलज्ञान परमावगाढ बनाता है उसी प्रकार चीतरामता श्रुत केवल एवं केवल ज्ञान को उत्पन्न करती है । किन्तु ज्ञान और चारित्रकी ये अवस्थाएं तबतक नहीं हो सकती जब तक कि सम्यग्दर्शनके निमित्तसे वे सम्यक नहीं बन जाते | इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दर्शन के बिना अथवा समीचीनताको प्राप्त किये बिना ज्ञान चारित्रकी भी सम्भूति आदिक वे अवस्थाएं नहीं हो सकतीं जिनके कि बिना मोक्ष मार्ग ही सिद्ध नहीं हो सकता । ___इस तरह इस कारिकाके द्वारा वियषमें बाधक बल दिखाकर थाचायने बताया है कि पूर्व कारिकामें निहित हेतुका साध्यके साथ जो अविनाभाव सम्बन्ध निश्चित है यह यहाँपर इस कथनसे स्पष्ट हो जाता है। साथही सम्यग्दर्शनकी तरह मोक्षमार्गमें सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रकी भी उतनीही आवश्यकता है यह बात भी दृष्टिमें आ जाती है, पहली कारिकामें जिस प्रकार कर्णधारका दृष्टांत देकर अथवा मोक्षमार्गमें सम्यग्दर्शन का कार्य भी उसे कर्णधारके ही सदृश बनाकर सम्यग्दर्शन के नेतृत्वको व्यक्त किया था उसी प्रकार यहां बीज वृक्षका महत्त्वपूर्ण दृष्टांत देकर स्नत्रय अथा सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का मोक्ष एवं उसके मार्ग में उपादानोपादेयभाव बड़ी सुन्दरताके साथ स्फुट कर दिया है। पूर्व कथित कारिकामें कर्णधार नाविकका दृष्टांत देकर रत्नत्रय मोक्षमार्गरूप तीनोंही गुणोंमें सम्यग्दर्शनको मुख्य बताते हुए भी तीनोंमें परस्पर सहभावके साथ निमिचनैमित्तिक सम्बन्ध बताया गया है जिसका प्राशय यह है कि इनमेंसे किसीकेमी उत्तरोचर होने वाले क्रमवती विकासमें शेष दोनोंही गुण निमित्त पड़ते हैं । इस कारिकामें बीजचका दृष्टांत उन गुणों की क्रमसे होने वाली अवस्थाओंमें पाये जाने वाले उपादानोपादेय भावको दिखाता है। इस तरहसे मोक्षम में पाये जाने वाले कार्य कारण भावमें भावश्यक अन्तरंग निमित और उपादान को दोनों कारिक ओंके इरा व्यक्त किया गया है। यद्यपि इस कारिकाके पूर्वाधसे यह प्रकट होता है कि-झान-चारिन तो उपादान हैं और उनकी सम्भूति भादिक अवस्थाएंउपादेय हैं। किन्तु 'विधाचस्प में समाहारद्वन्द्वके कारण
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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