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________________ दन्द्रिका टोका बतासा श्लाक योग्यता पर निर्भर हैं क्योंकि समुचित बीजके बिना वृक्षकी ययादित एवं यथेष्ट अवस्थाएं निष्पन्न नहीं हो सकती । उसी प्रकार शान चारित्रने प्रशस्तता प्राणा हुए बिना वह समुचित बीज रूप योग्यता नहीं आती जिमसेकि अन्तिम फलोदय तककी सभी अवस्थाए प्राप्त हो सकें। तात्पर्य-सम्यग्दर्शनकी तरह ज्ञान चारित्रको भी सम्यक बनने की आवश्यकता क्यों हैं इसका समाधान दृष्टांत पूर्वक श्राचार्यने इस कारिकामें मल प्रकार किया है। दृष्टांत जो दिया गया है उससे उपादानोपादेयभाव व्यक्त होता है । बीज वृक्षका उपादान है वहीं अंकुररूप होकर वृक्ष बनता है, अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए बढत बढते क्रमसे पत्र पुष्प रूप होकर अन्तमें फलरूपको शारा कर लिया करता है। यदि बीन सोय न हो तो उससे आगेकी ये अवस्थाएं भी उत्पन्न नहीं हो सकती। उसी प्रकार मोक्ष. तककी सभी अवस्थाओंका चीज सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र है । यदि ज्ञान और चारित्र सम्यक विशेषणसे युक्त न हों तो उनमें मोक्ष तककी अवस्थाओंके रूपमें परिणत होनेकी योग्यता नहीं छाती । फलसः मोक्षरूप कार्य और उसकी पूर्ववती कारणपरम्परा रूप अवस्थाएं भी सिद्ध नहीं हो सकती। . आगममें सम्यग्दर्शन सम्यग्नान सम्यकचारित्र और सम्यक तप इन चारों ही पाराष. नाओंकी १ क्रमसे होने वाली पांच पांच अवस्थाए' मानी गई है और बताई गई है-उद्योत उद्यवन निर्वाह सिद्धि और निस्तरणरं । मालुम होता है कि इन्हीं पांच अवस्थाओंको यहां पर सम्भृति आदि चार शब्दोंके द्वारा कहा गया है और पांचोंको चार अवस्थाओंमें ही घटित कर लिया गया है । मिथ्यात्व आदि दोषों को दूर करनेमें उद्यत रहना, और सम्यक्त्वमें लगनेवाले शंकादिक प्रतीचारोंको न लगने देना, तथा उपगृहनादि और संवेग निवेद निन्दा गहा उपशम मक्ति वात्सल्य और अनुकम्पा आदिके द्वारा उसे प्रकाशमान बनानेको सम्यग्दर्शनका उद्योवन कहा जाता है। उद्यवनका अर्थ अपने विरोधी भावोंसे आत्माको मिश्रित न होने देकर दृढता पूर्वक अपनी विशुद्धिमय ही आत्माको बनाये रखना होता है । निर्वाहका प्राशय यह है कि उस विशुद्धिके वहन करनेमें धारण करने और आगे बढानेमें किसीभी प्रकारको भाकुलता या क्षुब्धता न हो । सिद्धिका तात्पर्य उसकी स्वस्थाका सम्पूर्ण हो जाना और प्रति समय-नित्यही उसका फिर बैसाही बना रहना होता है। इसका संस्कार भात्मामें इतना अधिक व्याप्त हो जाय कि फिर यह मोक्ष होने तक बनाही रहे उसी भवमें या तो आत्माको मुक्त करदे या भवान्तरमें परन्तु अन्त तक यह बना रहे, इसको निस्तरण कहते हैं। प्रकृतमें विचार करनेसे मालुम हो सकता है कि उद्योतन और सम्भृतिका अर्थ एक ही है। तथा प्रवत्तक जो कुछ यहां वर्णन किया गया है वह मुख्यतया इसीसे सम्बन्धित है। अब जो कहना चाहते हैं उसका तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शनके उत्पन्न हो जानेके बाद उघष १, २-उज्जोयामुज्जपणं णिवहणं पाहणं च णिच्छरणं । दंखपणाणचरित्ततवाणमाराइमा मणिया । अन०प०२-११३ टीका
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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