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________________ मकर एहासकार पाय दानों के संधागसे रहित । किन्तु केवल मनोवर्गणाओं वचनवर्गणाओं और कायवर्गणामों के अवलम्बन युक्तः । ज्ञानकी भी इमीतरह तीन दशाएं होती हैं परन्तु उसमें पह एक विशेषता है कि. मोहका संपर्क हट जानेपर ज्ञानकी क्षायोपशामिक एवं सायिक इस तरह मसे जो दो दशाएं हुया करती हैं उन दोनों दाॉमसे शाबिक अवस्थामें किसीके भी अवलम्बनकी उसे अपेक्षा नहीं रहा करती। इन तीनों प्रास्थाओगेसे ज्ञान और चारित्र दोनों होकी पहली मिथ्यात्वसहित अवस्था कर्मबन्ध-संसाररूप बन्धका कारण है । और उससे रहित दोनोंही अवस्थाए सिद्धि-मुक्तिकी कारण है। अनादिकालसे चली आई मिथ्यान्वसहित अवस्था छूटकर जब दूसरी अवस्था प्राप्त होती है तब सर्वथा अपूर्व लोपोत्तर स्वयंसिद्ध असिनम्बर स्वाधीन अभीष्ट अवस्थाकी प्राद भूति होने के कारण उनका नया जन्म माना जाता है। यही उनकी संभूति है । इसके बाद इनकी जो स्थिति वृद्धि और फलोदयरूप अवस्थाएं हुधा करती है, वे ग्रन्थान्तरोंसे जानी जा सकती हैं। किन्तु इस विषय में ग्रन्थकार जो यहां कह रहे है उसका सारांश यही है कि ये दोनों ही गुण मोक्षमाग तबतक जन्म धारण नहीं कर सकते और न आगे बढने हुए क्रमसे स्थिति इद्धि फलोदयको ही प्राप्त कर सकते है, जब तक कि सम्यग्दर्शनके निमित्तसे सद्पना-मोचमाग रूप वृषके लिये श्रीपादानिक योग्यता समोचीन बीजरूपताको वे धारण नहीं कर लेते। ऐसा देखा जाता है कि रंगीन कपास उत्पन्न करने के लिये उसके बीजमें यथायोग्य मजीठ आदि वस्तुओं का संस्कार किया जाता है। यह संस्कार इतना रद होता है कि उस बीजमें परम्परातक सदाही रंगीन कपास उत्पन्न करनेकी योग्यता प्रजाती है। इसी प्रकार ज्ञान और चारित्रमें सम्यग्दर्शन इस तरह का संस्कार उत्पन्न करता है कि- आत्मामें या उसके ज्ञानादिगुणों में पासयोगसे जो विकृत रंग अनन्तकालसे चला रहा है, वह छूटकर स्वाभाविक शुद्ध रंग भनन्तकालके लिय भाजाता है। ये क्रमसे अपने शुद्ध स्वरूपमें सदा के लिए स्थिर होकर रहने लगते हैं। यही कारण है कि चीज वृक्षका दृष्टांत देकर उपादानोपादेयभावको व्यक्त करते हुए कहा गया है कि "विद्यावृत्त"-झान और चारित्र जेब तक सम्यक्त्वको प्राप्त नहीं कर लेतेसम्यग्दर्शनके प्रसादसे मोक्षमागाँपयोगी समीचीनतारूप संस्कारसे युक्त नहीं हो जाते तब तक अनन्त ज्ञान और शुद्धात्मस्वरूपमें स्थितिष्प सिद्धवफलको उत्पन्न करने झाले मोक्षमार्गरूप विवेक भेदज्ञान और सत्पुरुषार्थ-चारित्ररूप वीर्यगुण जैसे वृक्षोंकी संभूति आदि के लिये वे वास्तष में धीजरूप नहीं माने जा सकते | उनसे इस तरहके फलप्रद ऋतकी संभूति प्रादि नहीं हो सकती यही कारण है कि सम्यग्दर्शनको धर्मों में सबसे मुख्य माना गया है। प्रश्न हो सकता है कि ऐसा भी क्यों ? १-पस्मादभ्युदयः पुसा निःश्रेयसफलाश्रयः । वदन्ति विदिताम्नायारतं धर्भ धर्मसूरयः ।। यशः । यसले व्यायनिवसनिधिः स धर्मः ॥ ०१.२ बैशेषिकदर्शनम् ! नीतिवाक्यामृत अ० १ २०२।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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