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________________ पद्रिका टीका नौवां श्लोकफलदान सम्बन्ध में जो अनेक प्रकार की विप्रतिपत्नियां संभव है उन सबका इस "अनुन्लव्य विशेषण के द्वारा परिहार हो जाता है। अदृष्टेष्ट विरोधक-इस का भी सामान्य अर्थ प्रारम्भ में लिखा जा चुका है। किन्तु इसका समास या निर्वचन अनेक तरह से किया गया है । सदनुसार इस शब्द के अर्थ मी अनेक प्रकार के ही हो जाते हैं। संसपमें उन सबका पाशा शह है कि हम यागम के इष्ट विषयका न हो कोई विरोध कर ही सकता है और न अबतक कोई कर ही सका है । अथवा इसमें कोई भी इष्टका विरोध करने वाला विषय देखने में ही नहीं आता । यद्वा यह आगम दृष्ट-इन्द्रियगोचर तथा इष्ट-अभिलषित एवं अनुमेय विषयों का विरोध नहीं करता। __यह तो सभी समझ सकते हैं कि पृष्ट और इष्ट दोनों ही स्वतन्त्र विषय हैं। जी हष्ट विषय है वे इष्ट भी हो सकते हैं और अनिष्ट भी। इसी तरह जो इष्ट विषय हैं वे दृष्ट भी हो सकते हैं और अदृष्य भी। यही कारण है कि ग्रन्थकारने दोनों का ही उल्लेख किया है। फिर भी विवेकियोंको चाहिये कि वे औचित्य से ही काम लें और विचारें कि क्या सभी दृष्ट और इष्ट विषय ऐसे हैं कि जिनका आगम विरोध नहीं करता ? विचार करने पर उन्हें मालूम होगा कि सर्वथा ऐसा नहीं है। दृष्ट विषयों में भी जो निन्ध हैं सावध हैं अन्याय पूर्ण हैं उन सबका आगम सर्वथा विरोध करता है। इसी तरह जो अदृष्ट हैं वे सभी आदेय है ऐसा भी आगम प्रतिपादन नहीं करता। स्योंकि नरक गति अथवा निगोदादि तिर्यग्गति अथवा कुत्सित मनुष्य पर्याय एवं देवतिको भागममें पापका कार्य बताकर हेय ही बताया है...-उसका विरोध ही किया है। फलतास वाक्यका अर्थ इस तरह करना चाहिये कि जो विषय दृष्ट होकर भी इष्ट हैं-पुण्यरूप है. शुमोपयोग रूप होकर पुएबंध के कारण है उनका आगम विरोध नहीं करता। दूसरी बात यहहै कि किसी विषयका विरोध न करना अथवा किसी विषयका समर्थन करना ये दोनों ही वात भिन्न भिन्न है । दृष्ट और इष्ट विषय का आगम विरोध नहीं करता, इतना कहदेने पर भी यह नहीं मालूम होता कि आगमका वास्तपमें मुख्य विषय क्या है ? यद्यपि इस जिज्ञासा का समाधान "सचोपदेशकृत" विशेषण से होता है। परन्तु "दृष्टशविरोधी विशेषण से आगमके फलके सम्बन्ध में जो एकान्त अथवा भेदाभेद विपर्यास पाया जाता है उसका निरासं होता है। क्योंकि आगम के प्रतिपाद्य धर्मका फल क्या है इस विषय में लोगोंकी मिक र मान्यताएं हैं। कोई २ शरीरादि सम्पत्तिका अथवा पंचेन्द्रियोंके भौगोपमोगरूप विषयों का लाभ ही धर्म का फल मानते हैं। और कोई २ परम निःश्रेयसपदका लाम ही धर्मका फल है और यही भागमप्रतिपाय विषय है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं । किन्तु दोनों ही एकान्तरूप कपन १. प्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग पा श्वभ्रमेष वा' । अथवा तुष्टाः प्रयन्ति च राज्यमेते । यदा सोश तोवरका उपदेश सुनकर भी जीव मिध्यादृष्टि बना रहता है। इत्यादि अनेक ताहको मिथ्या मान्यताएं। ....२-देको सिद्धांत शास्त्री पं गौरीलालजी की मुद्रित टिप्पणियां । रलकरएट श्रावकाचार पृ० सोला। ३-विवेकपूर्णबुद्धिसे । 'औचित्यमेकमेकन गुणानो राशिरेतः । विषायते गुणमाम औचित्य परिवर्जितः ०प० AN
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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