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________________ रत्नकरएसनावकाचार प्रमाणभूत नही है दोनोंमें मत्री भाव ही धर्म है और नहीं मार तिवृषिका मार्ग है । क्योंकि उस व्यवहार मार्ग रूप धर्मका आश्रय लिये बिना जोकि ऐहिक अभ्युदयों का भी साधन है, निश्चय धमकी सिद्धि नहीं हो सकती ! और निश्चय को छोडकर केवल व्यवहार धर्म से प्रारमसिद्धिका लाभ नहीं। यह निश्चय धर्म की सिद्धि में साधन होने से और पुण्यसम्पत्तिका कारण होने से धर्मरूप में मान्य अवश्य है । पुण्य सम्पत्ति दो भागों में विभक्त की जा सकती है एक तो दृष्ट मनुष्यादि पर्यायसे सम्बन्धित राजाधिराज मण्डलेश्वर महामण्डलेश्वर नारायण बलभद्र चक्रवर्ती तीर्थकर अथवा गणधर कामदप आदिका पद या तत्सम्बद्ध विषय । दूसरे अदृष्ट--भोगभूमि, एवं स्वर्गो के पद और उनके सचित भषित भोगोपभोगरूप मनोहर विषय ! निश्चय धर्म इन फलोंका विरोधी नहीं है | किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि ये उसके वास्तविक फल हैं । वास्तव में तो निश्चय धर्म के सहचारी अथवा कचिन उसके साहचर्यस रहित रूपमभी पाये जानेवाले शुभोपयोग रूप परिणामों और तदनुकुल आधुचियोंके फल हैं। फिर भी जिसका फल दृए और इष्ट विषयों का लाभ है ऐसे शुभोपयोगरूप धर्म का निश्चयधम विरोधी नहीं है। इसी बातको "अदृष्टेष्टविरोधकं" विशेषण स्पष्ट करता है और फल विप्रतिपत्तिके साथ साथ इस सम्बन्ध की ऐकान्तिक अपमान्यतामोंका खएहन करके निश्चय और व्यवहार धर्म की मत्री रूपताको सिद्ध करता है। ___ सत्योपदेशकृत्-भाव और भाववान दोनोंका प्रहण हैं। और कोई भी वाक्य विना प्राधार एक अपने अर्थक विषयमें यथावर निश्वय नहीं करा सकता । अस हम इस वाक्यका अर्थ यह होता है कि जिनेन्द्र भगवान्का शासन ही ऐसा है जो कि वस्तु और उसके स्वरूपका ठीक २ निश्चय करा सकता है। साथ ही यह कि जिनन्द्र भगवान के शासन को छोडकर अन्य जितनेभी शासन हैं वे तत्त्वका उपदेश नहीं करते। अत एव उनका विषय और वे स्वयं अतवरूप ही हैं-अवास्तरिक है। विशेषणका फल इतरख्याधुचि होता है। अत एव इस विशेषणके द्वारा उन सभी शासनोंकी अतवरूपता बता कर हेयता प्रगट करदी गई है। तस्य भावस्तत्वम्" इस निरुक्ति के अनुसार और क्योंकि ततशब्द सर्वनाम है अत एक नत्वशब्द सभी विवक्षित पदार्थों के भावको सूचित करता है । जहाँ जो पदार्थ विवदित हो उसी के भावको यह शब्द व्यक्त करदेता है । आगममें यद्यपि सभी जीवादि पदार्थ वशिव है फिर मी उन सबमें जीय द्रव्य मुख्य मानागया है और उसी को प्रधानतया उपादेय मानकर वर्णन का लक्ष्य बनाया गया है । अत एव अन्य तत्रोंकी अपेक्षा जीवका सच यहां पर मुरूपतया समझना चाहिये आगममें उसके पांच भेद बताये हैं-औदपिक,चायिक,मायोपशमिक औपशमिक और पारणामिक । जो कि स्वतच नामसे कहे गये हैं। भाव और भाववान में कथंचित् भव्यतिरेक होनेके कारण तन्वशब्द से जीयादिसात सख -मीपशमिकशायिकी भावौ मिभश्य जीवस्य स्वतरणमौवकिपारिणामिकी "त. सू०२-१
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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