SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धौद्रिका टीका दशवा श्लोक कुछ लोगोंकी समझ है कि नम दिगम्बर जिन मुद्रा का में शाप्तोरन शासन का पालन प्रयोजनीभृत नहीं है। क्योंकि उसके बिना भी केवल आत्मध्यानसे ही क्रों की निर्जरा, संसार की निवृत्ति और निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है क्योंकि कर्मोका बन्ध और मोक्ष अपने परिवामॉपर निर्भर है अतएव इस तरह के तपश्चरण की आवश्यकता नहीं है । इस तरह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को ही आत्मसिद्धिका माधन मानकर जो तपश्च. रस को अनावश्यक समझते हैं उनको भी वह बताने के लिए कि तपश्चरण के बिना न तो श्रेयोमार्ग ही सिद्ध हो सकता है और न निवागण हा प्राप्त हो सकता है। माथही जो जिनशासनके अनुसार मोक्ष मार्गका पालन अशक्य समझ रहे है उनको यह स्पष्ट करने के लिए जैनागममें जो कुछ वर्लन किया गया है उसका न तो अनुष्ठान अशक्य है और न प्रयोजन ही अनिष्ट है। इस कारिका के द्वारा नपस्त्रीका स्वरूप बनाकर जैनागम के प्रतिपाद्य विषय श्रेयोमार्ग की शक्यानुष्ठानता एवं इष्ट फलवत्ता प्रकट करना कारिकाका प्रयोजन है क्योंकि इस कारिकामें जो तपस्वीका स्वरूप बताया गया है, वह जैनागमके सम्पूर्ण वर्णन का मुनिमान सार ही है। प्रथा जिस समीचीन धर्मका इस ग्रन्थ में वर्णन किया जायगा नपस्वी उसके साक्षात पिंड ही है। मानो वे मूर्तिमान रखत्रय ही हैं। सम्पूर्ण जैनागमकी सफलता भी तपस्वितापर ही निर्भर है। यह बात दृष्टि में प्रासके यह इस कारिकाके निर्माण का प्रयोजन है। शब्दार्थ-विपयसे मतलय पंचेन्द्रियोंके इष्टानिष्ट बुद्धि सरागभावपूर्वक सेव्य या असेन्य समझे जानेवाले विषयोंसे है, १ क्योंकि किसी भी विषयका चाहे वह ऐन्द्रिय हो अथवा अनीन्द्रिय ज्ञान होना न तो हेय ही है और न हानिकारक ही । शान तो आत्माका निज स्वभाव है, वाह तो छोड़ा नहीं जा सकता। और न वह छुट ही सकता है। वास्तव में छोड़ी जानी है उन विषयोंमें रागद्वेषकी भावना। अतएव कहागया है कि विषयोंकी भाशाके वशमें नहीं है। इन्द्रियों पांच है। उनके द्वारा जो ग्रहण करने में आते हैं ३ विषय सामान्यतया पांच हैं किंत विशेषतया सत्ताईस हैं। पांच रूप, पांच रस, दो गंध, आठ स्मश और सात स्वर । एक अनिन्द्रिय-मनफे विषयको भी यदि सामिल किया जाय तो अट्ठाईस विषय होते हैं । इनमेंसे जिनको इष्ट समझता है उनको संसारी प्राणी सेवन करना चाहता है और उन्हें प्राप्त करना चाहता है मत: उन विषयोंके सेवन करने और तदर्थ प्राप्त करनेकी जो आकांक्षा होती है वही संसार है और नही दुखोंका मूल है। जो जीव इस विषयाशासे अनुवासिन हैं । इसके अधीन बने हुए हैं हो भनभ्रमण भीर तन्जनित समस्त दुःखोंके पात्र बने हुए हैं । इसके विपरीत जो इस विषयाशा रुप करायवासनाके अधीन नहीं रहे हैं। जिन्होंने इस आशाको अपने अधीन बना लिगा बेत मोषमागी हैं। इसी अभिप्रायको दृष्टिमें रखकर कदागया है कि१- मनोसामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पंच" तस्वार्थसूत्र ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy