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रत्नकरएडभावकाचार करता है। अस्तु इस तरह से प्रत्येक सर्वज्ञ तीर्थकर अपने २ समयके आगम का उपज्ञ है।
आजकल इस भरत क्षेत्र में जो श्रागम प्रवत्त मान है उसके उपन्न श्री वर्धमान भगवान् हैं ! इनर्क पहले श्री ऋपभादिक अपने २ समयके आगमके उपज्ञ हुए हैं। यह कथन इस अयसर्पिणी काल की अपेक्षा से समझना चाहिये । इनके भी महले भूतकालीन तीर्थकर और श्रागे भविष्य तीर्थकर उपन हुए हैं और होंगे। इस तरह सामान्यतया प्रवाह की अपेचा आगम द्रव्याधिक नयमे अनाधान्त है । परन्तु पर्यायाधिक नय की अपेक्षा ब्रही श्रागम तसत् तीर्थकरोंकी उपज्ञताकी दृष्टि से सादि और सान्त भी है। यह कथन स्याद्वादसरणी के सनुसार अविरुद्ध और सत्य है । किन्तु जो म्यादाद को नहीं मानते उन एकान्तवादियोंका कथन सन्युक्तिपूर्ण नहीं माना जा सकता। यही कारण है कि "प्राप्तोषज्ञ" इस विशेषण के द्वारा बरूप विषा सके. मूलभूत उस एकान्तवाद का निरसन हो जाता है जिसके द्वारा "बंद" आदि की अनादिता का एकान्ततः समर्थन किया जाता है । क्योकि न तो उनका भून वक्ता आप्त है और न कोई कथन सर्वथा अनादि अकृत्रिम अनुत्पम हो ही सकता है।
अनुलंब्य--२ ब्दका सामान्यतया अर्थ इतना ही है कि जो उल्लंघन करनेके योग्य न हो । किन्तु यहां पर विचारणीय बात यह है कि किसी भी प्रकारका कोई भी शासन क्यों न हो फिर चाहे वह लौकिक हो अथवा पारलौकिक तब तकं वास्तविक नहीं माना जा सकता या प्रादरणीय नहीं हो सकता जब तक कि उसके अनुकूल तथा प्रतिकूल प्रवृत्तिमें लाम और हानि नियत नहीं है । यह हानि लाभ की नियति दो प्रकार से हो सकती है । एक तो किसी भी तर क चल अपांग द्वारा, और दूसरी प्रवृति या स्वभाव अनुसार । लोकिक शासन पहले प्रकार में आता है और धार्मिक अथवा पारलौकिक के शासन दूसरे प्रकार के अन्तर्गत है। अत एष इस विशेषण का आशय यह हो जाता है कि स्वभाव से ही यह संसारी प्राणी इसलिये दुःखी है कि इस पागम के अनुसार वह प्रवृत्ति नहीं करता, उसका उल्लंघन करके चलता है। जो इसका उल्लंघन नहीं करता वह स्वयं ही अनेक अभ्युदयोंका पात्र बनजाता है। और जो उसके अनुसार ही सर्वथा एवं सर्वदा अपनी प्रवृति करता है वह अवश्य ही संसार के दुःखों से छूटकर परमनिःश्रेयस अवस्थाको प्राप्त कर लेता है। इस तरह से देखा जाय तो आगमकी सफलता उसकी अनुन्लंघ्यता है । और इसीलिये समझना चाहिये कि भगवान के उपदेश के
निर्वाण अधिक ! २–महापद्म आदि। ३ वेदो की अमादिला या अपं.रुपेयता और तत्सम्बन्धी हेतुओंकी निःसारता एवं अयुक्तताको जानने के लिये देखो वेदवाद, प्रमेयकमलमार्तण्डादे न्याय ग्रन्थ तथा मादिपुराण आदि। ४-दम विशेषणसे स्वरूप विपास और कारण विपर्यास दोनों का परिहार हो जाता है। ५- जैसाकि लौकिक कवियों का कहना है । यथा न च विद्विषादरः भारवी किरानाजुनीय।
"दण्डो हि केवलं लोकमिहामुत्र च रक्षति ।" . ---मियाष्टि जीव । -मुख्यतया औपशमिक या शायोपशामक सम्यग्दृष्टि श्रापक या मुनि या सपना दयलिंगी भाभक अथवा मनि । -तायिक सम्यग्दष्टि श्रावक मुनि ।