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चंद्रिका टीका नौवां लोक
जो कि सामान्यरूप से सदा चलने वाले किसी भी अवसर्पिणी काल में नहीं पाई जातीं । यथा— तीसरे ही कालके कुछ अन्तिम भाग में वर्षा आदिका होना, विकलेन्द्रियों की उत्पत्ति, कल्पवृक्षों का अन्त होकर कर्म भूमिका व्यापार, इसी समय में तीर्थकर एवं चक्रवर्तीका उत्पन्न होजाना । चक्रवतीला मानभंग, थोडेले ही जीवों को निर्वाण प्राप्ति, ब्राह्मणसृष्टि, शलाका पुरुषों की संख्या में न्यूनता, नारद रुद्रकी उत्पत्ति, तीर्थकरोंपर उपसर्ग, चाण्डालादि जातियों तथा कल्की उपकल्कियों का उत्पन्न होना आदि । जिस तरह ये सब हुण्डावसविणी कालकी विशेषताएं हैं उसी तरह इस कालकी एक सबसे बड़ी विशेषता यह भी है कि इस कालमें अनेक प्रकार के द्रव्यरूप मिध्याथर्मो की भी प्रादुभूति होजाया करती है।
इस अवस्था में प्राणीमात्रके हितकी सद्भावना से ग्रन्थप्रणयन में प्रवृत आचार्यके लिये यह आवश्यक हो जाता है कि मुमुद जीव भ्रम में न पडजांय अथवा विपरीत मार्गका थाय लेकर अन्यायको प्राप्त न होजांय, इसके लिये अपसिद्धान्तोंका निरसन करने और ससिद्धान्त के वास्तविक स्वरूपका परिज्ञान कराने वाला उपदेश दें यहीं कारण हैं कि परमकारुणिक भगवान समन्तभद्र स्वामीने भी यहां पर आगम का स्वरूप इसी तरह से बताया है ।
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प्रकृत कारिका में आगम- शास्त्र अथवा शासन के जितने भी विशेषण हैं वे सब इसी उपर्युक्त प्रयोजनको सिद्ध करते हैं। यद्यपि यह प्रयोजन एक विशेषण "कापथघट्टनम् " से भी सिद्ध हो सकता है; तथापि यह विशेषण तो सामान्यतया आगम के निषेधाकरे स्वभावको प्रकट करता है । और पाकी विशेषण विशेषरूप से "क्षत्रिया आयाताः सूरथमपि " इस कहावत के अनुसार कुछ विशिष्ट अपमान्यताओं का निरसन करने वाले हैं। उदाहरणार्थ श्रागमके विषयमें लोगों जो स्वरूपविपर्यास, फल विपर्यास, भेदाभेदविपर्यास, विषय विपर्यास आदि अनेक तरहके विपर्यास बैठे हुए हैं उन सबका ये विशेषण परिवार करते हैं। इसी तरह और भी अनेक प्रयोजन हैं जिनको कि दृष्टि में रखकर ग्रन्थकर्त्ता ने आगमके लक्षण का प्रतिपादन करनेवाली इस attarai निर्माण किया हैं ।
शब्दों का सामान्य विशेष अर्थ
प्राप्त शब्दका अर्थ स्वयं ग्रन्थकर्ताने कारिका नं० ५ के द्वारा वतादिया हैं और उसका मी यास्थान किया जा चुका है । उपज्ञशब्दका अर्थ किसी भी विषयक मूल ज्ञाना या कथन करनेवाला है। उक्तलचणवाले आप्तपरमेष्ठी की दिव्यध्वनिको सुनकर जो ज्ञान प्राप्त होता है उसका प्रवाह गुणघरदेव आदिके द्वारा सामान्यतया तब तक प्रवृत्त रहता हैं जबतक कि उसी तरह के लक्षण से युक्त दूसरे आके आप्तरूप तीर्थकर परमेष्ठी उत्पन्न नहीं हो जाते। यह
सामान्य प्रवाह की अपेक्षा से है, विशेषतया कारण वश इसमें विच्छेद भी हो जाया
१- देखो हुंडावसर्पिणी के विशेष कार्यों के बताने वाले प्रकरण में शिलाक प्राप्तिका गाथा नः १६२६, २-योंकि वस्तुका स्वभाव विधिनिषेधात्मक है और इसीलिये ग्रन्थ कर्ता कभी विधिमुखेन कभी निषेध सुन और कभी उभयमुखेन कथन किया करते हैं।.