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शन्दोंका सामान्य विशेष अर्थ--
भापगा नाम नदी का है । क्योंकि श्राप शब्दका अर्थ होता है जल का समूह अर्थात् समुद्र । उसमें जाकर जो मिलती हैं उनको कहते हैं आपगा ! सागर२ नाम समुद्र का है । सगरेण निर्धतः सागरः । म्नान शब्दका अर्थ प्रसिद्ध है। उच्चय शब्द का अर्थ ऊपरको उठा हुमा-ढेर होता है । सिकता अर्थात् बालू और अश्मन अर्थात पत्थर गिरिपातः से मतलब पर्वतसे गिरना और अग्निपात से मतलब अनिमें गिरना । लोकमृदस मतलब लोकमूढता का है। अर्थात् लोक शब्दका अभिप्राय है अविचारी जन ! और उनकी चाहे जैसी क्रियाओं-व्यवहारों को देखकर उनपर मोहित होना--उनके ही अनुसार स्वयं भी विना विचार करना-चलना उनको सर्वथा सत्य मानना मुहता है इसी को कहते हैं लोग मूहता ।
ये सम शब्द योगरूक होनेपर भी उपलन्त्रण रूप है । फलतः इनसे चार तरह के पदार्थों का माशय समझना चाहिये । १-बहने वाले और एक जगह संगृहीत जलाशय, २-धूल मट्टी चूना जैसे पृथ्वी के मंग्रह और पत्थर कंकड टोल शिला आदि बडे बडे पार्थिव समुच्चय, ३-पर्वतसे गिरना, पृक्षपरसे गिरना या अन्य किसीभी उस्मारकापरसे भिरकर अपरेको वायुद्वारा विलीन करना आदि । ४-पीपल आदिमें बैठकर आग लगा लेना अथवा मृत पति के साथ उसकी चितामें जलकर मरना आदि अग्नि द्वारा अपघात करना । इसतरह भूत चतुष्टयमेंसे किसीके भी द्वारा धर्म मानना लोकमूडता है। __ तात्पर्य यह कि भूतचतुष्टय-पृथ्वी जल अग्नि और वायु में अर्थात् इनसे धर्म होता है ऐसा मानना लोकमूढता है ।
ऊपर यह बताया जा चुका है कि प्रकत कारिकामें प्रयुक्त मृद शब्द मृढ़ता के अर्थ में है। विचार या विवेककी हीनता रहितता को अथवा तत्पूर्वक होनेवाली प्रवृत्ति को मूढता कहते हैं। तथा चार तरह की मूढता उपलक्षण होनेसे इसीतरहकी ओर २ भी प्रचलित प्रतियां "काशी करवट" "पृथ्वी के भीतर बैठकर समाधिस्थ होना" "किसी वृसमें चिंदी बांधना" "पीपलको पदोपवीत पहराना" आदि सब मी लो मूढताएं ही हैं।
प्रश्न-प्राचार्योने सम्यग्दर्शन के विषय तीन बताये हैं—प्राप्त आगम और सपोमत । मतएव उसके विपरीत मिथ्यादर्शन के भी तीन ही विषय हो सकते है-कुदेव उपागम और गुरु। इनकी मान्यताको ही तीन मूढताएं कहा जा सकता है। जैसा कि उपर कहा जा चुका १--'अथवा जल समूह का अर्थ समुद्न करके सामान्य अर्थ ही करने पर इस तरह से भी निक हो सकती है कि श्रापेन जलसमूहन गच्छनि इति प्रापगा । जो जल समूहके द्वारा गमन करे । अर्थात् नदी। २-यहां सागर से प्रयोजन उस उपसमुद्र का है जो कि हुंडाबमर्पिणी के कारण तीसरे काल के अंतमें हुई वर्षा का जल इकट्ठा होकर समुद्र समान बन गया । कोषकारोंने सगर राजा के नाम पर सागर शब्दका भर्थ किया है सो मालूम होता है कि श्री अजितनाथ भगवानके समकालीन द्वितीय चक्रवर्ती सगरके नाम से प्रसिद्ध है उनको लक्ष्य कर किया है।